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________________ सूयगडो १ ८० अध्ययन २ : प्रामुख इस तथ्य की पुष्टि प्रस्तुत अध्ययन के अन्तिम श्लोक (७६) में प्रयुक्त "एवं से उदाहु' से होती है । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'स' से भगवान् ऋषभ को ग्रहण किया है और कहा है कि भगवान् ऋषभ ने अपने पुत्रों को उद्दिष्ट कर इस अध्ययन का प्रतिपादन किया है। परिमाण और प्रतिपाद्य प्रस्तुत अध्ययन में तीन उद्देशक और ७६ श्लोक हैं-पहले उद्देशक में २२, दूसरे में ३२ और तीसरे में २२ श्लोक हैं । नियुक्तिकार के अनुसार इन तीन उद्देशकों का प्रतिपाद्य (अर्थाधिकार) इस प्रकार हैपहला उद्देशक-हित-अहित, उपादेय और हेय का बोध तथा अनित्यता की अनुभूति । दूसरा उद्देशक-अहंकार-वर्जन के उपायों का निर्देश तथा इन्द्रिय-विषयों की अनित्यता का प्रतिपादन । तीसरा उद्देशक-अज्ञान द्वारा उपचित कर्मों के नाश के उपायों का प्रतिपादन । वस्तुतः यह अध्ययन इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि प्राणी की भोगेच्छा अनन्त है और उसे पदार्थों के उपभोग से कभी उपशान्त नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत अध्ययन में प्रतिपादित कुछ विचार-बिन्दु • जागना दुर्लभ है । जो वर्तमान क्षण में नहीं जागता और जागने की प्रतीक्षा करता रहता है, वह कभी जाग नहीं पाता। • वर्तमान क्षण ही जागृति का क्षण है, क्योंकि मृत्यु के लिए कोई अवस्था निश्चित नहीं है। • जागृति का अर्थ है-अहिंसा और अपरिग्रह की चेतना का निर्माण । • हिंसा और परिग्रह साथ-साथ चलते हैं। • अनित्यता का बोध संबोधि की ओर ले जाता है। ० मनुष्य को जागरण की दिशा में प्रमत्त नहीं होना चाहिए। ० सही अर्थ में प्रवजित वह होता है जो विषय और वासना-दोनों से मुक्त होता है। ० अकिंचनता (नग्नत्व) और तपस्या (कृशत्व) मुक्ति के हेतु हैं, साधन नहीं। मुक्ति का साधन है-कषाय-मुक्ति । • अहंकार न करने के तीन कारण • अहंकारी का वर्तमान, अतीत और भविष्य-तीनों काल दुःखपूर्ण होते हैं । • ऊंची-नीची अवस्था अवश्यंभावी है, फिर अहंकार कैसे ? • अहंकारी को मोक्ष, बोधि और श्रेय प्राप्त नहीं होते। ० धर्मकथा करने का अधिकारी वह होता है जो संवृतात्मा हो, विषयों के प्रति अनासक्त हो और स्वच्छ हृदयवाला हो। • अकेला वह है जो राग-द्वेष तथा संकल्प-विकल्प से मुक्त है। • असमाधि का मूल कारण है-मूर्छा । • दुःख का स्पर्श अज्ञान से होता है और उसका क्षय संयम से होता है। प्रस्तुत अध्ययन में 'अणुधम्मचारिणो' (श्लोक ४७) और 'कस्सव' (श्लोक ४७) शब्द महत्त्वपूर्ण हैं। अनुधर्मचारी का अर्थ अनुचरणशील होता है। अनुधर्म में विद्यमान 'अनु' शब्द को चार अर्थों में व्युत्पन्न किया है—अनुगत' अनुकूल, अनुलोम और अनुरूप । अनुगत + धर्म अनुधर्म अनुकूल + धर्म=अनुधर्म अनुलोम + धर्म=अनुधर्म अनुरूप + धर्म=अनुधर्म १. (क) चूणि, पृ० ७६ : से इति सो उसमसामी अट्ठावते पन्वते अट्ठाणउतीए सुताणं आह कथितवान् । (ख) वृत्ति, पत्र ७८ : स ऋषभस्वामी स्वपुत्रानुद्दिश्य उदाहृतवान् प्रतिपादितवान् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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