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आमुख
प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'वैतालीय' या 'वैतालिक' है। निर्युक्तिकार के अनुसार इसका निरुक्तगत नाम 'वैदारिक' तथा छंदगत नाम 'वैतालीय' है। यह वैतालीय छंद विशेष में रचित है । वृत्तिकार ने छन्द-रचना की प्रामाणिक जानकारी देते हुए उसका लक्षण इस प्रकार बतलाया है
'वैतालीयं तंगनैधनाः षडयुक् पादेऽष्टौ समे चला ।
न समोऽत्र परेण युज्यते नेतः षट् च निरन्तरा युजो: । ( छंदोनुशासनं ३ / ५३ )
वाचस्पत्यं में वैतालीय छन्द के लक्षण का यह श्लोक है
'षड् विषमेsort समे कलास्ताश्च समे स्युर्नो निरन्तराः ।
न समात्र पराश्रिता कला वैतालीयेऽन्ते रलौ गुरुः ॥ (४६७२ )
वैतालीय छन्द में प्रथम और तृतीय चरण में छह-छह मात्राएं तथा द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में आठ-आठ मात्राएं होती हैं । द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में वे मात्राएं निरन्तर एक समान नहीं होतीं, निरन्तर गुरु या निरन्तर लघु नहीं होतीं। वे कहीं गुरु और कहीं लघु होती हैं। प्रथम तथा तृतीय चरण के लिए यह नियम नहीं है। पूर्वाद्धं तथा उत्तरार्द्ध में जो मात्राएं बतलाई गई है, उनमें दूसरी, चौथी तथा छुट्टी मात्राएं गुरु न हों। चारों चरणों के लिए जो मात्राएं निर्दिष्ट हैं उनके आगे एक-एक रगण, एक-एक लघु और एक-एक गुरु होना चाहिए ।
बौद्ध साहित्य में भी 'वैतालीय' - वेयालीय छन्द में निबद्ध अध्ययनों का अस्तित्व प्राप्त है ।
कर्म - विदारण के आधार पर इसको वैदारिक मानना केवल काल्पनिक हो सकता है, क्योंकि अन्य अध्ययन भी कर्म - विदारण
के हेतुभूत बनते हैं । इस दृष्टि से इस अध्ययन का नाम "वैतालीय" ही उपयुक्त लगता है ।
इस अध्ययन की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं
'कामं तु सासतमिणं कथितं अट्ठावयम उसमेणं ।
अट्ठाणउति सुताणं सोउण य ते वि पव्वता ॥ ' (२२६)
भगवान् ऋषभ प्रव्रजित हुए और कैवल्य प्राप्त कर विहरण करने लगे । उनका ज्येष्ठ पुत्र भरत भारतवर्ष (छह खंडो ) पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती हुआ । उसने अपने इठ्ठानवें भाईयों से कहा- तुम सब मेरा अनुशासन स्वीकार करो या अपने-अपने राज्य का आधिपत्य छोड़ दो। वे सारे भाई असमंजस में पड़ गए। भरत की बात उन्हें अप्रिय लगी। राज्य का विभाग महाराज ऋषभ ने किया था, अतः वे उसे छोड़ना नहीं चाहते थे ।
उस समय भगवान् ऋषभ अष्टापद पर्वत पर विहार कर पूछा - भगवन् ! भरत हम सबको अपने अधीन करना चाहता है। है | अब आप बताएं, हम क्या करें ? क्या हम उसकी अनुशासना में चले जाएं ? हमारा मार्ग-दर्शन करें ।' तब भगवान् ऋषभ ने दृष्टान्त देकर समझाते हुए इस अध्ययन
रहे थे । वे सारे भाई वहां गए। भगवान् को वंदना कर उन्होंने उसने हम सबको उसका स्वामित्व स्वीकार करने के लिए कहा क्या हम अपनी प्रभुसत्ता को छोड़ दें ? आप का कथन किया ।
ऋषभ के पुत्रों ने इस अध्ययन को सुनकर जान लिया कि संसार असार है। विषयों के विपाक कटु और निःसार होते हैं । आयुष्य मदोन्मत्त हाथी के कानों की भांति चंचल है, पर्वतीय नदी के वेग के समान यौवन अस्थिर है । भगवान् की आज्ञा या मागंदर्शन ही श्रेयस्कर है । यह जानकर इट्ठानवें भाई भगवान् के पास प्रव्रजित हो गए ।
यह तथ्य चूर्णिकार और वृत्तिकार दोनों द्वारा मान्य है ।'
१. (क) चूर्ण, पृ० ५१ ।
(ख) वृत्ति, पत्र ५५ ॥
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