________________
सूयगडो १
३६. अपने आप को दंडित करता है (आयदण्डे )
इसका अर्थ है - अपने आपको आपको दंडित करता है ।
३७. अह
चूर्णिकार ने इसे 'आनन्तर्य' के अर्थ में और वृत्तिकार ने वाक्यालंकार के रूप में प्रयुक्त माना है । ' ३८. अनार्य धर्म (अणज्जधम्मे )
३३७
जिसका धर्म अनार्य है वह अनार्यधर्मा कहा जाता है। जो जैसा कहता है वैसा नहीं करता, वह अनार्यधर्मा है ।' वृत्तिकार ने क्रूरकर्म करने वाले को अनार्यधर्मा माना है। उनका कथन है कि जो व्यक्ति धर्म का नाम लेकर अथवा अपने सुख के लिए वनस्पति का नाश करता है, वह चाहे पाखंडी हो या कोई भी हो, वह अनार्यधर्मा है ।
श्लोक १०:
दंडित करने वाला । जो मनुष्य दूसरे प्राणियों को दंडित करता है वह वास्तव में अपने
३६. गर्भ में (गभाइ)
इसका अर्थ है - गर्भ काल में । साधारणतः मनुष्यणी का गर्भ काल साधिक नौ मास का होता है । अन्यान्य गर्भज प्राणियों का गर्भकाल भिन्न-भिन्न होता है । उस गर्भकाल में भ्रूण काल के परिपाक के साथ-साथ बढ़ता है, विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करता है । जो व्यक्ति पूर्वभव में वनस्पति आदि जीवों का उपमर्दक रहा है, वह गर्भ की किसी भी अवस्था में मर जाता है - यह सूत्रकार का आशय है ।"
४०. बोलने और न बोलने की स्थिति में ( बुवा बुयाणा )
क्रम की दृष्टि से पहले 'अबुयाणा' - नहीं बोलते हुए और बाद में 'बुयाणा' - बोलते हुए होना चाहिए था । किन्तु यहां छन्द की दृष्टि से क्रम का व्यत्यय किया गया है। ये दोनों शब्द दो अवस्थाओं के द्योतक हैं। जन्म के पश्चात् बालक कुछ वर्षों तक अव्यक्त वाणी में बोलता है । उसकी वाणी स्पष्ट नहीं होती । फिर ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता है, उसकी वाणी व्यक्त या स्पष्ट होती जाती है।'
४१. पंचशिख (पंचसिहा )
३. चूर्णि पृ० १५५ ४. बलि, पृ० १५७
अध्ययन ७ टिप्पण ३६-४१
जिसके सिर में पांच शिखाए होती हैं उसे पंचशिख कहा जाता है । चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'पंचचूड' किया है। इसका वैकल्पिक अर्थ है जिसके पांचों इन्द्रियां मिलाभूत होती है अपने-अपने विषय में कार्यक्षम होती है, उसे पंचशिल कहा जाता है। यह
-
१. यत्ति पत्र १५७ स च हरितछेदविधाय्यात्यानं ण्डपतीत्यात्मदण्डः स हि परमार्थतः परोपयातेनात्मानमेवोपहति ।
२. (क) चूर्णि पृ० १५५ : अत्थेत्यानन्तर्ये ।
(ख) वृत्ति, पत्र
: १५७: अथ शब्दो वाक्यालङ्कारे ।
+
Jain Education International
अनार्यधर्मोऽस्य स भवति अणज्जधम्मो । जधावादी तधाकारी न भवति । अनार्य क्रूरकर्मकारी भवतीत्यर्थः स च एवम्भूतो यो धर्मोपदेशेनात्मसुखार्थ या बीजानि अस्य चोकलक्षणार्थत्वात् वनस्पतिकारां हिनस्ति स पाषण्डिकलोकोऽन्यो वाऽनार्यधर्मा भवतीति सम्बन्धः ।
"
५. पूर्ण पृ० १५६ इति वक्तव्ये गर्भादि इति पयपदिश्यते तद् गर्भावस्थानिमित्तम् ।
: गर्भ
तद्यथा निषेक-कसलार्बुद पेशि----वस्थानामन्यत (र) स्यां कश्चिद् चियते । अथवा मासिकादिगर्भावस्थासु नवमासान्तास्वन्यतरस्यां म्रियते ।
६. चूर्ण, पृ० १५६ : प्रन्यानुलोम्यात् पूर्वं ब्रुवाणा:, इतरथानुपूर्वमत्र वाणा व वाणा इति यावत, न माता-पित्रादि व्यक्तया गिराऽभिधत्ते,
ततः परं ब्रवाणाः ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org