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सूयगडो १
अध्ययन ७: टिप्पण ३२-३५
है। यही इस पद का आशय है।'
___ दसवैकालिक आदि आगमों में स्थावर जीवों के लिए 'अणेगजीवा पुढोसत्ता" पाठ है। इसका यही आशय है कि पृथ्वी, पानी आदि असंख्य जीवों के पींड हैं। उन सभी जीवों का स्वतंत्र अस्तित्व है।
कुछ दार्शनिक सम्पूर्ण वृक्ष में एक ही जीव का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। उनके मत को अस्वीकार करने के लिए 'पुढो सियाई'-यह कथन है। ३२. अपने सुख के लिए (आतसुहं पड़च्च)
इसका अर्थ है-- अपने सुख के लिए । जो व्यक्ति अपने, दूसरे या दोनों को सुख पहुंचाने के लिए या दुःख की निवृत्ति करने के लिए अथवा आहार, शयन, आसन आदि साधन-सामग्री के लिए वनस्पति के जीवों की हिंसा करता है . . . . . . . ।'
वृत्तिकार के अनुसार इसका तात्पर्य है कि आत्मसुख के लिए हिंसा करने का अर्थ है-आहार, देह का उपचय और देहक्षत के संरोहण के लिए हिंसा करना।' ३३. ढीठ प्रज्ञा वाला (पागभिपण्णो)
ढीठ प्रज्ञा वाला, दयाहीन प्रज्ञा वाला ।' ३४. बहुत जीवों का (बहुणं)
'बहुत' का तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य एक का छेदन करता है, वह अनेक जीवों की हिंसा करता है, क्योंकि पृथ्वी आदि एक जीव नहीं, अनेक जीवों के पिंड हैं।"
श्लोक:
३५. (जाइं च..........."बीयाइ)
चूर्णिकार ने जाति का अर्थ बीज किया है । अंकुर, पत्र, मूल, स्कंध, शाखा, प्रशाखा-ये वनस्पति की वृद्धि के प्रकार हैं। जो व्यक्ति मुसल, ऊखल, चाकू अथवा यंत्रों के द्वारा बीज का विनाश करता है, वह वृद्धि का विनाश करता है। बीज के अभाव में वृद्धि कैसे होगी? इसका दूसरा अर्थ भी हो सकता है। बीज आदि का विनाश करने वाला जाति का भी विनाश करता है और वृद्धि का भी विनाश करता है। यहां बीज से फल का ग्रहण किया है, क्योंकि वनस्पति की दस अवस्थाओं में पहली अवस्था भी बीज है और अन्तिम अवस्था भी बीज है। यह अन्तिम अवस्था फलगत होती है। १. चूणि, पृ० १५५ : पुढो सिताणि पृथक्-पृथक् श्रितानि, न तु य एव मूले त एव स्कन्धे, केषाञ्चिदेकजीवो वृक्षः तद्व्युदासार्थ पुढो
सिताई ति । तान्येवम्-संखेज्जजीविताणि (असंखेज्जजीविताणि) अणंतजीविताणि वा। २. दसवेआलिगं ४।सूत्र ४-८। ३. णि, पृ० १५५ : पुढो सिताणि ....... तव्युदासार्थ पुढोसिताई ति । ४. चूणि, पृ० १५५ : आत्म-परोभबसुह-दुःखहेतुं वा आहार-सपणा-ऽऽसणाविउवभोगत्यं । ५. वृत्ति, पत्र १५७। ६. (क) चूणि पृ० १५५ : प्रागल्भिनाज्ञो नाम निरनुक्रोशमतिः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५७ : प्रागल्भ्यात् धाविष्टम्भाद् ........."निरनुक्रोशतया । ७. चूणि, पृ० १५५ : एगमपि छिन्दन बहून जीवान् निपातयति, एगपुढवीए अणेगा जीवा। ८. (क) चूणि पृ० १५५ : जातिरिति बीजम्, तं मशलोदूखला-स्यादिभिविनाशान्ति । यन्त्रकैश्च जातिविनाशे अङकुरादिबुद्धिर्हता एव,
जात्यभावे कुतो वृद्धिः ? अधवा जाति पि विणासेति बीजं । मुट्ठि (बुटि) पि णासेति अकुरादि ।
बीजादीति बीजा-ऽकुरादिक्रमो दर्शितः, पुव्वाणुपुत्वी च दसविधाणं ।। (ख) वृत्ति, पत्र १५७ : 'जातिम्' उत्पत्ति तथा अङकुरपत्रमूलस्कंधशाखाप्रशाखाभेदेन वृद्धि च विनाशयन् बीजानि च तत्फलानि
विनाशयन् हरितानि छिन्नत्तीति।
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