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सूयगडो १
प्रध्ययन ७:टिप्पण २६-३१
श्लोक : २६. वे जन्म से मृत्यु धारण करते हैं (विलंबगाणि)
इसका अर्थ है-जीव के स्वभाव को अथवा जीव की आकृति को दिखाने वाले । वनस्पति जीव हैं। वे जन्म से मृत्यु पर्यन्त, मनुष्य आदि जीवों की भांति, नाना अवस्थाओं को धारण करते हैं। जैसे मनुष्य की कलल, अर्बुद, मांसपेशी, गर्भ, प्रसव, बाल, कुमार, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध- ये अवस्थाएं होती हैं, इसी प्रकार हरित शालि आदि वनस्पति भी जात, अभिनव, संजातरस, युवा, पका हुआ, जीर्ण, सूखा हुआ और मृत-इन अवस्थाओं को धारण करते हैं। इसी प्रकार जब वृक्ष का बीज अंकुरित होता है तब उसे जात कहा जाता है । जब उसकी जड़ उगती हैं, जब वह स्कंध, शाखा और प्रशाखा से बढ़ता है तब वह पोतक कहलाता है। इसी प्रकार वह युवा होता है, मध्यम वय को प्राप्त होता है, जीर्ण होता है और एक दिन ऐसा आता है कि वह मर जाता है। इस प्रकार मनुष्य की भांति सारी अवस्थाएं वनस्पति में होती है।'
चूर्णिकार ने विलंबयंति का अर्थ- दिखाना और वृत्तिकार ने धारण करना किया है। ३०. वे आहार से उपचित होते हैं, (आहार-देहाई)
वनस्पति के शरीर आहार से उपचित होते हैं, यह इसका अर्थ है।
सभी प्राणियों का शरीर आहार के आधार पर टिका होता है । 'अन्नं वै प्राणा:-यह इसी का द्योतक है। इसी प्रकार वनस्पति जीवों का शरीर भी आहारमय है, आहार पर टिका होता है। आहार के अभाव में वृक्ष क्षीण हो जाते हैं, म्लान हो जाते हैं, सुख जाते हैं। आहार के आधार पर ही वृक्ष पुष्पित और फलित होते हैं। वृक्ष अधिक फल देते हैं या कम फल देते हैं, इसका आधार आहार की न्यूनाधिक मात्रा ही है ।'
वृत्तिकार ने इसका अर्थ सर्वथा भिन्न किया है। उन्होंने 'आहारदेहाय' (सं० आहारदेहार्थं) शब्द मानकर इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-व्यक्ति वनस्पति के जीवों की अपने भोजन के लिए, शरीर की वृद्धि के लिए, शरीर के घावों को मिटाने के लिए हिंसा करता है।
वृत्तिकार का यह अर्थ प्रसंगोचित नहीं लगता। सूत्रकार का आशय है कि जैसे त्रस प्राणियों का शरीर आहारमय होता है, वैसे ही स्थावर प्राणियों का शरीर भी आहारमय होता है । बिना आहार के कोई भी शरीर उपचित नहीं होता। कोई प्राणी कवल आहार करे या न करे, परन्तु रोम आहार या ओज आहार तो सब प्राणियों के होता ही है। ३१.वे (वनस्पति-जीव) मूल, स्कंध आदि में पृथक्-पृथक् होते हैं (पुढो सियाई)
वनस्पति की दस अवस्याएं हैं-मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज।
मूल से बीज तक एक ही जीव नहीं होता, अनेक जीव होते हैं । वनस्पति संख्येय, असंख्येय और अनन्त जीवों वाली होती १. (क) चूणि, पृ० १५५ : विलम्बयन्तीति विलम्बकानि, भूतस्वभावं भूताकृति दर्शयन्तीत्यर्थः। तद्यथा--मनुष्ये निषेक-कलला-ऽर्बुद
पेशि-व्यूह-गर्भ-प्रसव-बाल-कौमार-यौवन-मध्यम-स्थाविर्यान्तो मनुष्यो भवति । एवं हरितान्यपि शाल्यादीनि जातानि अभिनवानि सस्यानीत्यपदिश्यन्ते, सञ्जातरसाणि यौवनवन्ति, परिपक्वानि जीर्णानि, परिशुष्कानि मृतानीति । तथा वृक्षः अङकुरावस्थो जात इत्यपविश्यते, ततश्च मूलस्कंध-शाखादिभिविशेषैः परिवर्द्धमानः पोतक इत्यपदिश्यते, ततो युवा मध्यमो जीर्णो मृतश्चान्ते स इति ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५७ । २. (क) चूणि, पृ० १५५ : विलम्बयन्तीति दर्शयन्तीत्यर्थः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५७ : विलम्बन्ति-धारयन्ति । ३. चूर्णि, पृ० १५५ : अहारमया हि देहा देहिनाम्, अन्नं वै प्राणाः, आहाराभावे हि वृक्षा हीयन्ते म्लायन्ते शुष्यन्ते च मन्दफलाश्चा
फलाश्च भवन्ति । ४. वृत्ति, पत्र १५७ : वनस्पतिकायाश्रितान्याहारार्थ देहोपचयार्थ देहक्षतसंरोहणार्थ वाऽऽत्मसुखं 'प्रतीत्य' आश्रित्य यच्छिनत्ति । ५. दशवकालिक, जिनदासचूणि, पृ० १३८ : मूले कदे खंधे तया य साले तहप्पवाले य ।
पत्ते पुप्फे य फले बीए दसमे य नायव्वा ॥ .
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