________________
सूयगडो १
प्रध्ययन ७: टिप्पण २४-२८
___ कालोदायी ! जो मनुष्य अग्निकाय को जलाता है वह पृथ्विकायिक, अप्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों की अधिक हिंसा करता है और अग्निकायिक जीवों की कम हिंसा करता है। जो मनुष्य अग्निकाय को बुझाता है वह पृथ्वीकायिक आदि जीवों की कम हिंसा करता है और अग्निकायिक जीवों की अधिक हिंसा करता है।
इसलिए कालोदायी ! ऐसा कहा है। २४. मेधावी (मेहावि)
मेधावी का अर्थ है-सत् ओर असत् का विवेक रखने वाला, विद्वान् ।' २५. अग्नि का समारंभ .......... (अगणिसमारभिज्जा)
अग्नि का समारभ तीन प्रयोजनों से होता है-तपाना, सुखाना और प्रकाश करना ।
श्लोक: २६. उड़ने वाले (संपातिम)
संपातिमा' के स्थान पर 'संपातिम'--यह विभक्तिरहित प्रयोग है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ शलभ, वायु, आदि जीव किया है। शलभ आदि उड़ने वाले त्रस प्राणी संपातिम होते हैं । यह प्रचलित अर्थ है । चूर्णिकार ने वायु को भी संपातिम बतलाया है, यह एक नया अर्थ है । वायु अग्नि से टकराती है। उससे वायुकायिक जीव मरते हैं । इस दृष्टि से यहां वायुकाय का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। २७. संस्वेदज (संसेदया)
देख-७१ का टिप्पण। २८. इंधन में भी जीव होते हैं (कट्ठसमस्सिता)
इसका अर्थ है-काठ में रहने वाले घुन, चींटियां, कृमि आदि ।
१. अंगसुत्ताणि भाग २, भगवई, ७२२७, २२८ : दो मंते ! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिध्वया सरिसमंडमत्तोवगरणा अण्णमण्णेणं
सद्धि अगणिकायं समारंभंति । तत्थ गं एगे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, एगे पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ । एएसि णं भंते ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए चेव ? महाकिरियतराए चेव ? महासवतराए चेव ? महावेयणतराए चेव ? कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव? अप्पकिरियतराए चेव ? अप्पासवतराए चेव ? अप्पवेयणतराए चेव ? जे वा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेड. जे वा से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ ?
कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव ....... ." तत्थ गंजे से पुरिसे अगणिकायं निब्वावेइ, से णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव ।
सेकेणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ ... . . . . . . . ? कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं पुरिसे बहतरागं पूढविक्कायं समारभति, बहुतरागं आउक्कायं समारभति अप्पतरागं तेउक्कायं समारभति, बहुतरागं वाउकायं समारति, बहुतरागं वणराइकार्य समारभति, बहुतरागं तसकायं समारभति ।
तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निम्बावेड, से णं पुरिसे अप्पतरागं पुढविकायं समारझति, अप्पतरागं आउक्कायं समारभति, बहतरागं तेउक्कायं समारभति, अप्पतरागं वाउकायं समारभति, अप्पतरागं वणस्सइकायं समारभति, अप्पतरागं तसकायं
समारभति । से तेण?णं कालोदायी !...........। २. वृत्ति, पत्र १५६ : मेधावी सदसद्विवेकः सश्रुतिक. । ३. चूणि, पृ० १५५ : तपन-वितापन-प्रकाशहेतुर्वा स्यात् । ४. चूणि, पृ० १५५ : सम्पतन्तीति सम्पातिनः शलभ-वारवादयः । ५. (क) चूणि, पृ० १५५ : काष्ठेषु घुण-पिपीलिकाण्डादयः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५७ : धुणपिपीलिकाकृम्यादय काष्ठाद्याश्रिताश्च ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org