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सूयगडो १
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अध्ययन ७: टिप्पण १८-२३ १५. श्रमण का व्रत ले (समणव्वए)
श्रमण का व्रत स्वीकार कर अर्थात् संन्यास धारण कर, अथवा 'हम श्रमण हैं'-ऐसा कहते हुए। १९. अह
अथ शब्द का प्रयोग प्रश्न करने, आनन्तर्य दिखाने और वाक्योपन्यास में होता है। वृत्तिकार ने इसे वाक्योपन्यास के अर्थ में माना है। २०. अपने सुख के लिए (आतसाते)
इसका अर्थ है- अपने सुख के लिए । जैसे गृहस्थ अपने सुख के लिए पचन-पाचन आदि क्रिया करते हैं, वैसे ही कुछ संन्यासी भी अपने सुख के लिए- स्वर्ग सुख पाने के लिए पंचाग्नि तप करते हैं, अग्निहोत्र आदि क्रियाएं करते हैं।' २१. लोक में (लोए)
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने लोक का अर्थ- पाषण्डिलोक अथवा सर्वलोक या गृहस्थलोक किया है।' २२. कुशीलधर्म वाला (कुसीलधम्मे)
चर्णिकार ने इस पाठ के स्थान पर 'अणज्जधम्मे' पाठ की व्याख्या की है । इसका अर्थ है-अनुजुधर्मवाला। पाषंडी का धर्म आर्जव रहित कैसे? यह प्रश्न उपस्थित कर चूर्णिकार ने इसका उत्तर दिया है-- वह अपने आपको अहिंसक कहता है और वास्तव में अहिंसक नहीं होता।
श्लोक ६: २३. (उज्जालओ पाण .. ........ अगणिऽतिवातएज्जा)
___ प्रस्तुत दो चरणों का प्रतिपाद्य है कि जो मनुष्य अग्नि को जलाता है, वह भी प्राणियों का वध करता है और जो मनुष्य अग्नि को बुझाता है, वह भी प्राणियों का वध करता है । भगवती सूत्र में इस आशय को स्पष्ट करने वाला एक सुन्दर संवाद है। कालोदायी ने भगवान् से पूछा--भंते ! दो व्यक्ति अग्निकाय का समारंभ करते हैं। एक मनुष्य अग्नि को जलाता है और एक मनुष्य अग्नि को बुझाता है । भंते ! इन दोनों मनुष्यों में महाकर्म करने वाला कौन है ? और अल्प कर्म करने वाला कौन है ?
भगवान् ने कहा-कालोदायी ! जो अग्निकाय को जलाता है वह महाकर्म करता है और जो अग्निकाय को बुझाता है वह अल्पकर्म करता है।'
भंते ! यह कैसे ?
१. (क) चूणि, पृष्ठ १५४ : श्रमणवतिनः श्रमण इति वा वदन्ति ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५६ : श्रमणवते किल वयं समुपस्थिता इत्येवभ्युपगम्य । २. चूणि, पृ० १५४ : अथ प्रश्ना-ऽऽनन्तर्यादिषु । ३. वृत्ति, पत्र १५६ : अथेति वाक्योपन्यासार्थः। ४. (क) चूणि, पृ० १५४ : पञ्चाग्नितापादिभिः प्रकारः पाकनिमित्तं च भूताई जे हिंसति आतसाते, भूतानीति अग्निभूतानि यानि
चान्यानि अग्निना यध्यन्ते आत्मसातनिमित्तं आत्मसातम् । तद्यथा- तपन-वितापन-प्रकाशहेतुम् । (ख) वृत्ति, पत्र १५६ : आतसते-आत्मसुखार्थ । तथाहि-पञ्चाग्नितपसा निष्टप्तदेहास्तथाऽग्निहोत्रादिकया च क्रियया
पाषण्डिकाः स्वर्गावाप्तिमिच्छन्तीति, तथा लौकिका: पचनपाचनादिप्रकारेणाग्निकार्य समारभमाणाः
सुखमभिलषन्तीति। ५. (क) चूणि, पृ० १५४ : लोकः पाण्डिलोकः अथवा सर्वलोक एव ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५६ : सोऽयं पाषण्डिको लोको गृहस्थलोको वा। ६. चूर्णि, पृ० १५४ : अनार्जवो धर्मो यस्य सोऽयं अणज्जधम्मे । कथं अनार्जवः ? अहिंसक इति चात्मानं ब्रवते न चाहिंसकः ।
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