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________________ सूयगडो १ १४. निमन्त्रित करती हैं (णिमंतेंति) प्रश्न उपस्थित हुआ कि स्त्रियों के लिए कामतंत्र को जानने वाले अथवा काम के प्रयोजन की पूर्ति करने वाले बहुत लोग हैं, फिर वे भिक्षु को क्यों निमंत्रित करेंगी ? इस प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार ने एक मनोवैज्ञानिक रहस्य का उद्घाटन किया है । उन्होंने कहा – निरुद्ध स्त्रियां चाहे सधवा हो या विधवा आसपास रहने वाले व्यक्ति, फिर चाहे वह कूबड़ा हो या अन्धा, की कामना करने लग जाती हैं ।' उदाहरण की भाषा में एक गाथा प्रस्तुत है' - अंब वा निबं वा अन्भासगुणेण आह वल्ली 1 एवं इत्थीतोवि य जं आसन्नं तमिच्छन्ति ।। १६६ १५. बन्धन है (पासाणि) स्त्रियां प्रियता के द्वारा मनुष्यों को अपने वश में करती हैं। यहां एक मनोवैज्ञानिक तथ्य प्रगट हुआ है कि किसी को बांधना हो तो उसे अनुकूलता के पास से बांघो पूर्णिकार और वृत्तिकार ने यहां एक गाथा उद्धृत की है— तं आणि गव्हाह काहि क अ वा ॥ इच्छसि आसपास श्लोक ५ : १६. उनसे (स्त्रियों से) आंख न मिलाए ( णो तासु चवखु संधेज्जा ) इसका अर्थ है - स्त्रियों के साथ आंख न मिलाए। चक्षु-संधान का अर्थ है- दृष्टि का दृष्टि के साथ समागम ।" मुनि स्त्री के साथ चक्षु-संधान न करे । स्त्री के साथ बात करने का अवसर आए तो मुनि उसे अस्निग्ध- रूखी और अस्थिर दृष्टि से देखे तथा अवज्ञाभाव से कुछ समय तक (एकबार ) देखकर निवृत्त हो जाए ।' वृत्तिकार ने इसी भाव का एक श्लोक उद्धृत किया है— १७. साहस (मैथुन भावना) का ( साहसं ) कायन्यतिमान्निरीक्षते योविदङ्गमस्थिरया । अस्निग्धया दृशाऽवज्ञया, ह्यकुपितोऽपि कुपित इव ॥ Jain Education International अध्ययन ४ : टिप्पण १४- १७ चूर्णिकार के अनुसार 'साहस' का अर्थ 'परदारगमन' है । असाहसिक व्यक्ति वैसा कर नहीं सकता । यह संग्राम में उतरने जैसा है। वहां मृत्यु भी हो सकती है, हाथ पैर आदि कट सकते हैं, व्यक्ति बांधा जा सकता है, पीटा जा सकता है । प्रव्रजित व्यक्ति के लिए अपनी त्यक्त पत्नी के साथ समागम करना भी साहसिक कार्य है तो भला परस्त्री गमन साहसिक कैसे नहीं होगा ? १. चूर्ण, पृ० १०४ : स्यात् किमासां भिक्षुणा प्रयोजनम् ? नन्वासामन्ये कामतन्त्रविदः तत्प्रयोजनिनश्च गृहस्था विद्यन्ते ताहि सन्निरुद्धा सधवा विधवा वा, आसन्नगतो हि निरुद्धा:भिः कुब्जोऽन्धयोऽपि च काम्यते, किमु यो सकोविदः ? १०४ । २. (क) चूणि, पृ० (ख) वृत्ति, पत्र १०६ । ३. पूर्ण पृ० १०४ वासयन्तीति पासा त एव हि पासा देखा न केवलं हाव-भाव-विभ्रमेङ्गितादयः न हि यलम् न तु ये दान-मान- सहकारा: शक्यन्ते छेत्तुम् । ४. (क) चूर्णि, पृ० १०४ । (ख) वृति पत्र १०६ । ५. (४) चूणि, पृ० १०५ संघणं नाम विट्ठीए दिट्टिसमायो (ख) वृत्ति पत्र १०६ : चक्षुः नेत्रं सन्दध्यात् सन्धयेद्वा, न तद्दृष्टौ स्वदृष्टि निवेशयेत् । ६. चूणि, पृ० १०५ : अकुटुओ विकुटुओ विय तासु णिच्चं भवेज्जा, कार्येऽपि सति अस्निग्धया दृष्ट्या अस्थिरया अवज्ञया चैना मोषनिरीक्षेत । ७. वृति पत्र १०६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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