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सूयगडो १
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अध्ययन ४: टिप्पण १५-२० उन्होंने इसका वैकलिक अर्थ 'मरण' किया है । इस का तीसरा अर्थ है -स्सी अपनी चपलता के कारण साहस करे तो भी मुनि उसका अनुमोदन न करे।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ अकार्यकरण किया है। दशवकालिक में साहसिक का अर्थ 'अविमृश्यकारी' मिलता है।'
१८. साथ .......... भी (सद्धियं पि)
चूर्णिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं१. स्त्री के साथ ग्रामानुग्राम विहार न करे । २. जहां स्त्रियां बैठी हो वहां न बैठे। ३. जहां मुनि बैठा हो वहां अचानक स्त्रियां आ जाएं तो मुनि वहां से निर्गमन कर दे, क्षण भर के लिए भी वहां न बैठे।
वुत्तिकार ने इसके द्वारा स्त्री के साथ ग्राम आदि में विहार करने का निषेध किया है और 'अपि' शब्द से स्त्री के साथ एक आसन पर बैठने का निषेध किया है । उन्होंने एक सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है
'मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥
मुनि मां, बहिन या पुत्री के साथ भी एक आसन पर न बैठे। इन्द्रिय-समूह बहुत बलवान होता है । पंडित व्यक्ति भी यहां मूढ़ हो जाता है। १६. इस प्रकार आत्मा सुरक्षित रहता है (एवमप्पा सुरक्खिओ होइ)
वृत्तिकार के अनुसार समस्त अपायों (दोषों) का मूल कारण है -सी के साथ संबंध । जो साधक स्त्री-संग का वर्जन करता है वह समस्त अपाय-स्थानों से बच जाता है, अपनी आत्मा को दोषाविल होने से बचा लेता है। इसलिए मुनि को स्त्री-संग का दूर से ही परिहार कर देना चाहिए।'
चणिकार ने आत्मा के दो अर्थ किए हैं-शरीर और आत्मा । जो मैयुन से विरत होते हैं वे अपनी शरीर और आत्मादोनों की रक्षा दोनों लोकों में करते हैं।'
श्लोक ६:
२०. आमन्त्रित कर (संकेत देकर) (आमंतिय)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है-पति को पूछकर ।
१. चणि, पृ० १०५ : साहसमिति परदारगमनम्, न ह्यसाहसिकस्तत् करोति, सङ्ग्रामावतरणवत् तत्र हि सद्यो मरणमपि स्यात्,
हस्ताविच्छेद-बन्ध-घातो वा, स्वदारमपि तावद् दीक्षितस्य साहसम्, किमु परदारगमनम् । अथवा साहस
मरणम्, प्राणान्तिकेऽपि न कुर्यात् । अथवा यदसौ स्त्री चापल्यात् साहसं कुर्यात् । २. वृत्ति, पत्र १०६ : साहसम् --अकार्यकरणम् । ३. देखें-दसवेआलियं ९।२।२२ में 'साहस' शब्द का टिप्पण। ४. चूणि, पृ० १०५ : सद्धियं ति ताहि सह गामाणुगाम (ण) विहरेज्ज, जत्थ वा ताओ ठाणे अच्छति तत्थ ण चिद्वितव्वं, कयाइ पुग्वि
ठितस्स रत्ति एज्जं ततो णिग्गंतव्वं, क्षणमात्रमपि न संवस्याः । ५. वृत्ति, पत्र १०६ : तथा नैव स्त्रीभिः साधं ग्रामादौ 'विहरेत्' गच्छन्, अपि शब्दात् न ताभिः साधं विविक्तासनो भवेत्, ततो महा
पापस्थानमेतत् यतीनां यत् स्त्रीभिः सह साङ्गत्यमिति । ६. वृत्ति, पत्र १०६ : एवमनेन स्त्रीसङ्गवर्जनेनात्मा समस्तापायस्थानेभ्यो रक्षितो भवति, यतः-सर्वापायानां स्त्रीसम्बंधः कारणम्,
अतः स्वहितार्थी तत्सङ्ग दूरतः परिहरेदिति । ७. चूणि पृ० १०५ : आत्मेति सरीरमात्मा च, स इह परे च लोके अतिरक्षितो भवति । प. पूर्णि, पृ० १०५ । भर्तारं आमन्त्र्य नाम पुच्छितुं तत्प्रयोजनावसितं वा स्थापयित्वा ।
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