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सूयगडो १
पर आकर बैठ जाती हैं ।'
६. अधोवस्त्र को ( पोसवत्थं )
'पोस' का अर्थ उपस्थ (जननेन्द्रिय) है । स्थानांग ६।२४ में शरीर के नौ स्रोत बतलाएं हैं- दो कान, दो आंख, दो नासाएं, मुंह, पोष और पायुः । वृत्तिकार अभयदेवसूरी ने भी इसका यही अर्थ किया है। होता है।
इससे 'पोसवत्थं' का अर्थ अधोवस्त्र फलित
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१०. ढीला कर उसे बांधती है (परिहिति)
इसका अर्थ है- धारण करना या बांधना । स्त्रियां अपनी काम-भावना प्रगट करने के लिए तथा साधु को ठगने के लिए कसे हुए वस्त्र को ढीला कर पुनः उसे बांधने का दिखावा करती हैं ।"
श्लोक ४ :
अध्ययन ४ टिप्पण १-१३
११. कालोचित (जोगोहि)
जिस स्थान में उच्चार, प्रस्रवण, चंक्रमण, कायोत्सर्ग, ध्यान और अध्ययन की भूमियां हों, वह स्थान योग्य – कालोचित
होता है।
१२. शयन ( सयण )
इसका प्रचलित अर्थ है— शयन, शय्या, बिछौना । इसका व्युत्पत्तिलम्य अर्थ है - जिस पर सोया जाता है वह पलंग आदि ।" चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं— संस्तारक और उपाश्रय ।"
वे स्त्रियां भिक्षु से कहती हैं- मुने! अन्दर ठंड है, बाहर बहुत गर्मी है, उपाश्रय में चलें। इस प्रकार वे उसे निमंत्रित करती हैं । वे उपाश्रय से धूल या कचरे को निकाल कर या उसे झाड़-पोंछ कर साफ करती हैं। यह भी लुभाने का एक उपाय है । १३. कभी ( एगया)
चूर्णिकार ने एकदा का अर्थ - जिस समय वह अकेला या सहयोगी के लिए व्याकुल होता है— किया है । वृत्तिकार ने इसके द्वारा एकान्त स्थान और एकान्त समय का ग्रहण किया है।"
१ (क) चूर्ण, पृ० १०४ : भृशं नाम अत्यर्थे प्रकर्षे, ऊरुणा ऊरुं अक्कमित्ता, दूरगता, हि नातिस्नेहमुत्पादयन्ति विश्रम्भवा तेण अद्धासणे णिसीदति सन्निकृष्टा वा ।
(ख) वृतपत्र १०६ भृशम् अत्यर्थमुख्यपीडयलिनेमा विकुर्वः ।
२. ठाणं ६२४ : णव सोत-परिस्सवा बोंदी पण्णत्ता, तं जहा—दो सोत्ता, दो णेत्ता, दो घाणा, मुहं, पोसए, पाऊ ।
३. स्थानांग वृत्ति, पत्र ४२७ पोसेएत्ति-उपस्था ।
४. चूणि, पृ० १०४ : पोसवत्थं नाम णिवणं ।
५. (क) चूणि, पृ० १०४ : तमभीक्ष्णमभीक्ष्णमायरबद्धमपि शिथिलोकृत्वा परिर्हिति ।
(ख) वृत्ति
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१०६ तेन शिथिला दिव्यपदेशेन परिदप्रति स्वाभिलाषमावेदयन्त्यः साधुप्रतारणार्थ परिधानं शिथिलीकृत्य पुननिबध्नन्तीति ।
६. पू पृ० १०४ पोपहार उच्चार या सण-कम-श्याम-भाषाभूमीओ घेण्यंति।
"
७. वृत्ति, पत्र १०६ : शय्यतेऽस्मिन्निति शयनं पर्यङ्कादि ।
चणि, पृ० १०४ : सयणं णाम उवस्सयं
...सयणाणि वा ।
६. चूर्ण, पृ० १०४ : सीतं इदाणि साहुं अंतो, अतीव गिम्हे वा पवाएण णिमंतेंति, धूलि वा कतवरं वा उवस्सग्गाड़ जीणंति, अण्णतरं वा सम्मजणा-ssa रिसीयणाति उवस्सगपकम्मं करेंति ।
१०. चूणि, पृ० १०४ : एकस्मिन् काले एकदा, यदा यदा स एकाकी भवति व्याकुलसखायो वा ।
११ वृत्ति पत्र १०६ एकदा इति विविक्तदेशकालावी ।
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