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सूयगडो १
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अध्ययन ५: टिप्पण ५०-५३
श्लोक २१: ५० तापमय (धम्मठाणं)
___ नरक के कुछ स्थान उष्णता प्रधान होते हैं । वहां की उष्णता कुंभीपाक से भी अनंतगुण अधिक होती है। वहां की वायु लुहार की धमनी से निकलने वाली वायु से भी अनन्तगुण अधिक उष्ण होती है।'
वृत्तिकार के अनुसार वहां वायु आदि पदार्थ प्रलयकाल की अग्नि से भी अधिक गरम होते हैं।' देखें-टिप्पण ३२।
श्लोक २३: ५१. ताड़पत्रों के संपुट की भांति (तलसंपुड व्व)
इसका अर्थ है-ताड़पत्रों के संपुट की भांति हाथों और पैरों को संपुटित कर देना।
चूर्णिकार के अनुसार तालसंपुटित का अर्थ है-हाथों को इस प्रकार बांधना कि दोनों करतल मिल जाएं और पैरों को भी इस प्रकार से बांधना कि दोनों पगतल मिल जाएं।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ सर्वथा भिन्न प्रकार से किया है। उनके अनुसार इसका अर्थ है-ताड़वृक्ष के सूखे पत्तों का समूह ।'
श्लोक २४: ५२. यदि तुमने सुना हो (जइ ते सुया)
सुधर्मा जम्बू से कहते हैं-यदि तुमने सुना हो।' चूर्णिकार का कथन है कि लोकच ति भी ऐसा ही कहती है कि नरक में कुंभियां हैं।' ५३. पुरुष से बड़ी (अहियपोरुसीया)
इसका अर्थ है-पुरुष से बड़ी, पुरुष की ऊंचाई से ऊंची। इसमें डाला हुआ नैरयिक बाहर देख नहीं सकता। वह इतनी बड़ी होती है कि उसके किनारों को पकड़कर नैरयिक बाहार नहीं आ सकता।' ५४. कुंभी (कुंभी)
कुंभ एक प्रकार का माप है । तीन प्रकार के मापों के लिए इसका प्रयोग होता है-२४० सेर, ३२० सेर अथवा ४०० सेर। इस प्रमाण वाले वर्तन को कुंभी कहा जाता है।'
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं--१. जो कुंभ से बड़ी होती है वह कुंभी। इसका दूसरा अर्थ है-उष्ट्रिका-ऊंट के आकार का बड़ा बरतन । १. चूणि, पृ० १३२ : घम्मठाणं कुंभीपागअणंतगुणाधियं । जो वि तत्थ वातो सो वि लोहारधमणी व अणंतगुणउसिणाधिको। २. वृत्ति, पत्र १३२: धर्मप्रधानं उष्णप्रधानं स्थितिः स्थानं नारकाणां भवति, तत्र हि प्रलयातिरिक्ताग्निमा वाताबीना
मत्यन्तोष्णरूपत्वात् । ३. चूणि, पृ० १३२ : तलसंपुलिता णाम अयतबंधता हस्तयोः कृता, यथेषां करतलं चकत्र मिसति एवं पारयोरपि । ४. वृत्ति, पत्र १३३ : तालसम्पुटा इव पवनेरितशुष्कतालपत्रसंचया इव । ५. वृत्ति, पत्र १३३ : पुनरपि सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमुद्दिश्य भगवद्वचनमाविठकरोति--यदि ते-स्वपा, श्रुता-आणिता । ६. चुणि, पृ० १३३ : यदि त्वया कदाचित् लोकेऽपि ाषा अतिः प्रतीता तत्र कुंभीओ विज्जति । ७. चूणि, पृ० १३३ : महंति-महंतीओ पुरुषप्रमाणातीता अधियपोक्सीया, यथाऽस्या प्रक्षिप्तो नारकः पश्यतीति, ण वा चरको कन्सु
अवलंबिउं उत्तरित्तए। ८. पाइयसद्दमहण्णवो। ६. चूणि, पृ० १३३ : कुंभी महंता कुम्भप्रमाणाधिकप्रमाणा कुम्भी भवति .........अधया कुंभी उद्विगा।
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