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________________ सूयगडो १ ५५. अधम भवों में (नवाहमे ) हमने इसको सप्तमी विभक्ति मानकर इसका अर्थ 'अधम भवों में किया है। चूर्णिकार ने भी इसे सप्तम्यंत पद माना है किन्तु इसका अर्थ 'अधम में' किया है । वृत्तिकार ने इसे द्वितीया विभक्ति का बहुवचन मानकर मच्छीमार तथा व्याध आदि के भवों को अधम माना है । " ५६. स्वयं से (अप्पेण) वृत्तिकार ने इसका संस्कृतरूप 'अल्पेन' देकर इसका अर्थ- परोपघात करने से उत्पन्न थोड़े से सुख से किया है। हमने इसका संस्कृतरूप 'आत्मना' किया है। इसका अर्थ है - स्वयं से । ५७. ठग कर (वंचइत्ता ) है । ५८. जैसा कर्म २५८ इलोक २६ : कूट तोल आदि से अपने को ठग कर अथवा परोपघात के सुख से अपने को ठग कर । ' Jain Education International ... उसका भार (दुःख परिमाण) होता है (जहाकडे कम्म तहा से भारे) क्रूर कर्म करने वाले प्राणी घोर नरक में दीर्घकाल तक पड़े रहते हैं। जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही उसका भार होता अध्ययन ५ : टिप्पण ५५-५८ } बुर्णिकार ने यहां एक शंका उपस्थित की है कि नरक में कर्मानुरूप बेचना विपत्ति होती है वहां कैसा भार ? भार कहने का तात्पर्य क्या है ? इसके समाधान में वे कहते हैं-भार के कथन की भावना यह है कि जिस अध्यवसाय से प्राणी कर्मों का उपचय करता है वैसा ही उसकी वेदना का भार होता है । कर्मों की तीन स्थितियां हैं- उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । स्थिति के अनुरूप वेदना होती है । प्राणी संसार में जैसे कर्म करता है वैसी ही वेदना नरक में भोगनी पड़ती है। वह वेदना तीन प्रकार से उदीर्ण होती है- स्वतः परतः और उभयतः । उभयतः उदीर्ण होने वाली वेदना के ये कुछ प्रकार हैं मांस खाने वालों को उन्हीं के शरीर का अग्निवर्ण मांस खिलाया जाता है । मांसरस का पान करने वालों को उन्हीं का मांसरस अथवा तपा हुआ तांबा या शीशा पिलाया जाता है । शिकारी तथा कसाई को उसी प्रकार छेदा जाता है, मारा जाता है । झूठ बोलने वाले की जीभ निकाल दी जाती है या टुकड़े-टुकड़े कर दी जाती है। चोरों के अंगोपांग काट डाले जाते हैं अथवा चोरों को एकत्रित कर, ग्रामवध की भांति उन्हें मारा जाता है । परस्त्रीगमन करने वालों के वृषण छेदे जाते हैं, तथा अग्नि में तपे हुए लोहस्तंभों से आलिंगन करने के लिए बाध्य किया जाता है । . महापरिग्रह और महाआरंभ करने में जिन-जिन कारों से प्राणियों को दुःखित किया है, उनका निरोध किया है, यातना दी है, उन्हें सेवा में व्यापृत किया है, उन्हीं के अनुसार वेदना प्राप्त होती है । १. चूर्ण, पृ० १३३ : भवाधमे भवानामधम: अतस्तस्मिन् भवाधमे । २. वृति, पत्र १३४ : भवानां मध्ये अधमा मवाधमाः मत्स्यबन्धलुब्धकादीनां भवास्तान् । ३. वृत्ति, पत्र १३४ : अल्पेन स्तोकेन परोपघातसुखेन । ४. नृषि, पृ० १३३ पंचकूलाहि अथवा अध्याय बरोवपात जो क्रोधी स्वभाव के थे, उनके लिए ऐसी क्रियाएं की जाती हैं जिससे उनमें क्रोध उत्पन्न हो । जब वे रुष्ट हो जाते हैं तब नरकपाल कहता है- अब कुपित क्यों नहीं हो रहे हो ? अब तुम क्रुद्ध होकर क्या कर सकोगे ? जो मानी थे, उनकी अवहेलना की जाती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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