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सूयगडो १
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अध्ययन ५ टिप्पण ५४ ६१
जो मायावी थे उन्हें ठगा जाता है, जैसे--गर्मी से संतप्त नैरयिकों को असिपत्र आदि पेड़ों की ठंडी छाया में ले जाया जाता है। वहां वृक्ष के पत्ते नीचे गिरते हैं और शरीर छिन्न-भिन्न हो जाता है प्यास लगने पर वे नैरयिक पानी मांगते हैं। तब उन्हें गरम सीसा और तांबा पिलाते हैं ।
जो लोभी थे, उन्हें भी इसी प्रकार से पीड़ित किया जाता है ।
इसी प्रकार अन्यान्य आश्रवद्वारों में भी यथायोग्य वेदना दी जाती है ।
अतः श्लोक के इस चरण में उचित ही कहा गया है कि जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही उसका भार होता है ।
वृत्तिकार भी इस वर्णन से सहमत हैं । उपरोक्त चरण में प्रयुक्त 'भार' शब्द वेदना का द्योतक है । वेदना कर्म से उत्पन्न होती है । अतः यथार्थ कर्म भार ही है ।'
५९. पाप का (क)
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पूर्णिकार ने इसका अर्थ 'कर्म और वृत्तिकार ने 'पाप' किया है।'
श्लोक २७ :
६०. अनिष्ट (कसिणे)
इसके संस्कृतरूप दो बनते हैं—कृष्ण और कृत्स्न । हमने प्रथमरूप मानकर इसका अर्थ अनिष्ट किया है ।
पूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ- संपूर्ण किया है।
६१. अपवित्र स्थान में (कुणिमे)
जहां का सारा स्थान मांस, रुधिर, पीव आदि के कर्दम से भरा पड़ा है, जो बीभत्स है, हाहाकर से गूंज रहा है और जहां 'कष्ट मत दो' - ऐसे शब्दों से सारी दिशाएं बधिर हो रही हैं, ऐसे परम अधम नरकावास में । "
१. (क) चूर्णि, पृ० १३३ : यथा चैषां कृतानि कर्माणि तथैवैषां मारो वोढव्य इत्यर्थः, बिर्भात भ्रियते वाऽसौ भारः । का तहि भावना ? - यादृशेनाध्यवसायेन कर्माण्युपचिनोति तथैवैषां वेदनाभारो भवति, उत्कृष्टस्थितिर्वा मध्यमा जघन्या वा, ठितिअणुरूवा चेव वेदना भवति अथवा पाशानी कर्माचिनोति तथा तथापि वेदनोदीयते तेपां स्वयं वा परतो वा उभयता उभयकरणेण तद्यथा— मांसादाः स्वमांसान्येवाग्निवर्णानि भक्ष्यन्ते । रसकपायिनः पूय दधिरं कलकलीकृतं तउ-तंबादीणि य द्रवीकृतानि । व्याध - घात सौकरिकादयस्तु तथैव छिद्यन्ते मार्यन्ते च । चारकपाला अष्टादशकर्मकारिणः कार्यन्ते च । आनुतिकानां द्विस्यन्ते सुद्यते च चौराणां अङ्गोपाङ्गाहियन्ते पिण्डीकृत्य चैनान् प्रामपातेष्विव वधयन्ति । पारदारिकाणां वृणारि अग्निवर्णाश्च सोहमय्यः स्त्रियः अवगाहाविति । महापरिहारम्मंश्च येन येन प्रकारेण जीवा दुःखापिता सन्निरुद्धा जातिता अभियुक्ताश्च तथा तथा वेयणाओ पविज्जति । क्रोधनशीलानां तत् तत् क्रियते येन येन क्रोधउत्पद्यते एवं सिजति एवं सिजति इदानी वा किन यसे ? कि वा क्रुद्धः करिष्यसि ? मागियो होलिति । मायिणो असिपत्तमादीहि शीतलच्छायासरिसेहि य तउअतंबएहि प्रवंचिज्जति । लोभे जधा परिग्गहे । एवमन्येष्वपि आश्रवेष्वायोज्यमिति । अतः साधूक्तं जधा कडे कम्मे तधा से मारे इति ।
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(ख) वृत्ति, पत्र १३४ ।
२. चूर्ण, पृ० १३४ : कलुषमिति कर्मैव ।
३. वृत्ति, पत्र १३४ : कलुषं पापम् ।
४. (क) चूणि, पृ० १३४ : कसिणे संपुष्णे ।
(ख) वृत्ति पत्र १३४संपूर्ण
५. (क) चूर्णि, पृ० १३४ : कुणिमेति न कश्चित् तत्र मेध्यो देशः सव्वे चैव मेद वसा-मंस- रुधिरपुध्वाणुले वणतला । (ख) वृत्ति पत्र १३४ मिमेति मांसपेशीदधिरान् फिल्फिस हर बलाकुलेसा तावदित्यादिशब्दवधिरितवियन्तराले परमाद्यने नरकायासे ।
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बीमरसवर्शने हाहारवाकयेन कमा
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