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________________ सूयगडो १ २५६ अध्ययन ५: टिप्पण ४६-४६ वृत्तिकार के अनुसार वे नरकपाल कहते हैं-अरे, तू प्रसन्नता से प्राणियों के मांस को काट-काट कर खाता था, उनका रस पीता था, मद्य पीता था, परस्त्री-गमन करता था। अब तू उन पाप-कर्मों का बिपाक भोगते हुए क्यों रो रहा है ? इस प्रकार वे उसे पूर्वाचरित सारे पाप-कर्मों की याद दिलाते हैं।' ४६. प्राणों (शरीर के अवयवों और इन्द्रियों का (पाणेहि) नरकपाल नारकीय जीवों के शरीर और इन्द्रिय-बल प्राण का वियोजन करते हैं।' श्लोक २०: ४७. मल से भरे हुए (दुरूवस्स) 'दुरूव' देशी शब्द है। चूणिकार ने इसका अर्थ-उच्चार और प्रस्रवण का कर्दम किया है । वृत्तिकार ने इसका अर्थविष्ठा, रक्त, मांस आदि का कर्दम किया है। ४८. नरकावास में जा पड़ते हैं (णरगे पडंति) नरकपालों द्वारा पीटे जाते हुए वे नैरयिक इधर-उधर दौड़ते हुए छुपने के लिए स्थान ढूंढ़ते हैं। किन्तु वे ऐसे स्थान में चले जाते हैं जहां उनकी वेदना और भयंकर हो जाती है। जैसे चर-पुरुष चोर का पीछा करते हैं वैसे ही नरकपाल उनका पीछा करते हैं। जैसे चोर दौड़ते-दौड़ते किसी घने जंगल में चले जाते हैं और वहां उन्हें सिंह, व्याघ्र, अजगर आदि हिंस्र पशु खा जाते हैं वैसे ही वे नैरयिक पहले से भी अधिक भयंकर पीड़ा वाले स्थान में जा पड़ते हैं।' ४६. काटे जाते हैं (तुइंति) नरकपाल विष्ठा में होने वाले कृमियों के आकार वाले कृमियों की विकुर्वणा करते हैं । वे बड़े-बड़े कृमी उन नैरयिकों को काटते हैं । नैरयिक उनको हटाने का प्रयत्न करते हैं, पर वे बड़े कष्ट से दूर होते हैं। वे नैरयिक परिश्रान्त हो जाते हैं । कृमी उनको काटना नहीं छोड़ते।' आगमकार का कथन है कि छठी, सातवीं नरक में नरयिक बहुत बड़े रक्त कुंथुओं की विकुर्वणा कर परस्पर एक दूसरे के शरीर को काटते हैं, खाते हैं।' १.वृत्ति पत्र १३२ : तदा हृष्टस्त्वं खादसि समुत्कृत्योत्कृत्य प्राणिनां मांस तथा पिबपि तद्रसं मद्य च गच्छसि परदारान् साम्प्रतं तद्विपाकापादितेन कर्मणाऽभितप्यमानः किमेवं रारटीषीत्येवं सर्वः पुराकृतः दण्डः दुःखविशेषः स्मारयन्तस्तादृश भूतमेव दु:खविशेषमुत्पादयन्तो नरकपालाः पीडयन्तीति । २. चूणि, पृ० १३१ : प्राणाः शरीरेन्द्रिय-बलप्राणाः,......" विश्लेषयन्तीत्यर्थः । ३. चूणि पृ० १३१ : दुरुयं णाम उच्चार-पासवणकद्दमो। ४. वृत्ति, पत्र १३२ : दुष्टं रूपं यस्य तद्रूपं- विष्ठासृग्मांसादिकल्मलम् । ५. चूणि, पृ० १२१ : त एवं बालाः हन्यमाना इतश्चेतश्च पलायमाणा णिलुक्कणपधं मग्गंता नरकमेवान्यं भोमतरवेवनं प्रविशन्ति, जध इह चोरेहि चोरा चारिज्जता कडिल्लमनुप्रविशन्ति, तत्रापि सिंह-व्याघ्रा-ऽजगरादिभिः खाद्यन्ते, एवं ते बाला पलायमाणा नरकपालभया तं नरकं पतंति । ६. (क) चूणि, पृ० १३१ : तुद्यन्त इति तुद्यमानाः खाद्यमानाः कृमिभिः कम्मोवसगा णाम कर्मयोग्या कर्मवशगा वा, तत्थ दुरूवे विण्ठा कृमिसंस्थाना विउब्विया किमिगा तेहि खज्जमाणा चिठ्ठति, गुणमाणा य तत्थ किच्छाहिं गच्छंति, परिस्संता य तत्थेव लोलमाणा किमिगेहि खज्जति । (ख) वृत्ति, पत्र १३२ । ७. जीवाजीवाभिगम ३।१११ : छठुसत्तमासु णं पुढवीसु नेरइया बहू महंताई लोहियकुंथुरूवाइं वइरामयतुंडाई गोमयकोडसमाणाई विउव्वंति, विउवित्ता अण्णमण्णस्स कायं समतुरंगेमाणा-समतुरंगेमाणाखायमाणा-खायमाणा सयपोरागकिमिया विव चालेमाणा-चालेमाणा अंतो-अंतो अणप्पविसमाणा-अणुप्पविसमाणा वेदण उदीरेंति-उज्जलं जाव दुरहियासं । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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