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________________ सूयगडो १ नरकपाल उन पर गरम तेल छिड़ककर और अधिक जलाते हैं ।" चूर्णिकार के अनुसार वे नारकीय जीव नरक में होने वाले स्वाभाविक दुःख से और विशेषतः नरकपालों के द्वारा उदीरित दुःखों से प्रायः वेदनामय जीवन जीते हैं । " २५५ श्लोक १८ : ४४. उदीर्ण कर्मवाले नरकपाल ( उदिष्णकम्माण उदिष्णकम्मा) नारकीय जीवों के प्रायः असातावेदनीय आदि अशुभ कर्म उदय में रहते हैं और नरकपालों के मोहनीय कर्म की प्रकृतियां मिथ्यात्व, हास्य, रति उदय में रहती हैं। अतः वे नारकीय जीवों को पीड़ा पहुंचाने में रस लेते हैं । श्लोक १६: ४५. श्लोक १६ : प्रस्तुत श्लोक में एक प्रश्न का समाधान प्रस्तुत किया गया है। नरक में उत्पन्न होने वालों को कैसी वेदना दी जाती है ? क्या वे यहां जिस प्रकार से जो पाप कर्म करते हैं, नरक में उसी प्रकार से उनको पीड़ित किया जाता है अथवा दूसरे प्रकार से ? नैरयिकों को तीन प्रकार से वेदना प्राप्त होती है १. जिनके कर्म तीव्र हैं, वे तीव्र वेदना को भोगते हैं । २. जिनके कर्म मंद हैं, वे मन्द वेदना को भोगते हैं। ३. जिनके कर्म मध्यम (परिणाम वाले) हैं, वे मध्यम वेदना को भोगते हैं । जिस प्राणी ने जिस रूप में या जिस अवस्था में जो पाप कर्म किया है, उसका वैसे ही उनको स्मरण करवाते हैं। जैसे-राजा की अवस्था में उसने क्या-क्या पाप कर्म किए थे, अमात्य की अवस्था में या चारकपाल ( जेलर ) या कसाई की अवस्था में जो पाप कर्म किए हैं, उनका स्मरण करवाते हैं । अध्ययन ५ टिप्पण ४४-४५ उनको उसी प्रकार से न छेदा जाता है, न मारा जाता है, न उनका वध किया जाता है । केवल उनको उन-उन प्रवृत्तियों की ओर प्रेरित किया जाता है। १. वृत्ति, पत्र १३१ : अरहितो निरन्तोऽभितापो महादाहो येषां ते अरहिताभितापा: तथापि तान्नारकांस्ते नरकपालास्तापयन्त्यत्ययं हन्तीति । २ (क) पूर्ण पृ० १२१ : २. णि, पृ० १३१ : अयोकवल्लादिसु तेषां नरकाणां गण्डस्योपरि पिटका इव जातास्ते ते स्वाभाविकेन नरकदुक्खेण विशेषतश्च नरकपालोदीरितेन पुनः पुनः समोहन्यमानाः प्रायं वेदनासमुद्धानैरिव कालं गमयन्ति । असातावेदभिन्नादिगाओ ओस अचाओ कम्पनडीयो उदिग्णामो अमुरकुमाराण विसिमि हास-रतीओओ इति असस्ते किम्मा मेरइयानं शरीराणोति वाक्यशेषः, कर्माणोऽमुराः । , (ख) वृति पत्र १३१ उदीर्णम्प्राप्तं कविया कर्मयां ते तथा तेयां तथा उदीर्णकर्माणो नरकवाला मिध्यात्यहास्य(स्पारयादीनामुदये वर्तमानाः " -दु:खमास वेदनीयमुत्पादयन्तौति । ४. पू. १० १३१ मि ते तेथे वेदनामुदीरयति? कीदृशया ? Jain Education International तीव्रोपचितैस्तीव्र वेदना भवन्ति मन्दमन्दा मध्येध्या नरक विशेषत: स्थितिविशेषतश्च । अधवा जधातधं ति राजत्वे वा राजामात्यत्वे चारकपालवे लुब्धकत्वे वा सीकरिक-मत्स्यग्धत्वा वच-वात-मसोपरोध-पारदारिक-पाजिक संसारमोचक-महापरित्येवमादयो इण्डा येर्यथा कृतास्तान् तथैव दंडे तत्थ सरयंति बालं, तैरवे यथाकृतैर्दण्डैः स्मारयन्ति यातयमानाः सरयंति त्ति स्मारयन्ति । न तथा छिद्यन्ते एव मार्यन्ते बध्यन्ते विध्यन्ते सह्यन्ते, एवं यावन्तो यथा च दण्डप्रकाराः कृतास्तावद्भिस्तथा च सारमन्ति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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