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सूयगडो १
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अध्ययन ५: टिप्पण ३९-४३ ३९. हाथों और पैरों को (हत्थेहि पाएहि)
वे नरपाल उन नैरयिक जीवों के हाथ-पैर रस्सी से या लोह की सांकलों से बांध देते हैं, जिससे कि वे कहीं भागकर न जा सकें, न उठ सकें और न चल सकें।'
श्लोक १५: ४०. उलट-पुलट करते हुए (परिवत्तयंता)
- जो नैरयिक उस लोहे की कडाही में ओंधे पड़े हैं, उनको सीधा कर तथा जो सीधे पड़े हैं उन्हें ओंधे कर, वे नरकपाल उन्हें पकाते हैं।
श्लोक १६: ४१. तीव्र वेदना से.. ........ नहीं मरते (ण मिज्जई तिव्वभिवेयणाए)
वृत्तिकार ने "मिज्जई' के दो संस्कृतरूप दिए हैं-'मीयते' और 'नियन्ते'। इनके आधार पर इस चरण के दो अर्थ हो जाते हैं---
१. आग में डाली हुई मछली की वेदना से भी नैरयिकों द्वारा अनुभूत तीव्र वेदना को उपमित नहीं किया जा सकता, क्योंकि
वह उससे तीव्रतम है। २. तीव्र वेदना को भोगते हुए भी, कर्मों का भोग शेष रहने के कारण वे नरयिक नहीं मरते।'
चूर्णिकार ने 'तिव्वऽतिवेयणाए' पाठ माना है और उन्होंने बताया है कि वास्तव में 'अतितिव्ववेदणाए-ऐसा पाठ चाहिए था। किन्तु छन्द-रचना की दृष्टि से 'तिवऽतिवेयणाए' पाठ उपलब्ध है । उन्होंने 'मिज्जई' का संस्कृत रूप भ्रियन्ते किया है।'
श्लोक १७: ४२. शीत से व्याप्त (लोलणसंपगाढे)
चूर्णिकार ने संप्रगाढ़ का अर्थ निरन्तर किया है। जहां शीत के दुःख से निरन्तर उछलकूद करने वाले नैरयिक होते हैं, उस नरकावास के लिए 'लोलनसंप्रगाढ' का प्रयोग किया गया है। चूर्णि में 'लोलुअसंपगाढे' पाठ है ।' 'लोलुअ'—यह एक नरकावास का नाम है।
वृत्तिकार ने संप्रगाढ़ का अर्थ-व्याप्त, भृत किया है।' ४३. वे निरन्तर ........... जलाते हैं (अरहियाभितावे तह वी तवेंति)
'अरहित' का अर्थ है निरन्तर और अभिताप का अर्थ है महादाह । वे नैरयिक निरंतर महादाह में तपते रहते हैं फिर भी १. चूणि, पृ० १३० : रज्जूहि य णियलेहि य अंदुआहि य किडिकिडिगाबधेणं बंधिऊणं मा पलाइस्संति उट्ठस्सेंति वा चलेसेंति वा । २. (क) चूणि, पृ० १३० : अयकवल्लेसु तम्मि चेव णियए रुधिरे उव्वत्तेमाणा परियत्तेमाणा।
(ख) वृत्ति, पत्र १३१ : कथं पचन्तीत्याह-परिवर्तयन्तः उत्तानानवाङ्मुखान् वा कुर्वन्तः। ३. वृत्ति, पत्र १३१ : तथा तत्तीवाभिवेदनया नापरमग्निप्रक्षिप्त मत्स्यादिकमप्यस्ति यन्मीयते-उपमीयते अनन्यसदृशीं तीव्र वेदनां
वाचामगोचरामनुभवन्तीत्यर्थः, यदि वा–तीवाभिवेदनयाऽप्यननुभतस्वकृतकर्मत्वान्न म्रियन्त इति । ४. चूर्णि, पृ० १३० : न वा म्रियन्ते, तिव्वा अतीव वेदणा, बन्धानुलोम्यादेवं गतम्, इतरधा तु अतितिब्ववेदणाइ त्ति पठ्येत । ५. चूणि पृ० १३० : भृशं गाढं प्रगाढं निरन्तरमित्यर्थः . . . . . . . . 'अथवा सामाविगअगणिणा तत्तं सीतवेदणिज्जा वि लोलुगा तेसु वि
रइया सीएण हिमुक्कडअहुणपक्खित्ताई व भुजंगा लल्लक्कारेण सीतेणं लोलाविज्जति । ६. ठाणं,६१७०,७१। ७. वृत्ति, पत्र १३१ : सम्यक् प्रगाढो-व्याप्तो भृतः।
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