SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूपगडो १ २५३ अध्ययन ५ टिप्पण ३५-३८ नरक में नरयिकों को निरन्तर दुःख में पकना पड़ता है। निमेषभर के लिए भी उन्हें सुख की अनुभूति नहीं होती। वे निरन्तर दुःख ही भोगते रहते हैं।' चूर्णिकार ने भी 'धर्म' का अर्थ स्वभाव किया है । वे नरक स्वभाव से ही प्रतप्त होते हैं। श्लोक १३: ३५. क्रूरकर्मा नरकपाल........."तपाते हैं (कूरकम्मा भितवेंति बालं) . चूर्णिकार ने इस शब्द को नैरयिक और नरकपाल- दोनों का विशेषण माना है। पहले जिन्होंने क्रूरकर्म किए हैं वे नैरयिक अथवा वे नरकपाल जो सदा क्रूरकर्म करते रहते हैं, नरक की भीषणतम अग्नि से तप्त नैरयिकों को और अधिक तपाते हैं। वे मंदबुद्धि नरकपाल नरकप्रायोग्य कर्मों का उपचय करते हैं।' वृत्तिकार ने इस शब्द को नरकपाल से ही संबद्ध माना है।' ३६. जैसे अग्नि के समीप..... .. .. जीवित मछलियां (मच्छा व जीवंतुवजोइपत्ता) मछलियां शीत-योनिक जीव हैं। वे नहीं जानतीं कि ताप क्या होता है ? वे ताप सहन नहीं कर सकतीं। गर्म हवा से भी वे तप उठती हैं। अग्नि के समीप तो उन्हें अत्यन्त दुःख होता है। वे तड़फ-तड़फ कर मर जाती हैं। इसीलिए यहां नैरयिकों की तुलना मछलियों से की गई है। श्लोक १४: ३७. संतक्षण (संतच्छणं) इस नाम का एक नरकावास है, जहां नरयिकों को खदिर काष्ठ की भांति छीला जाता है। इस छीलने के कारण ही इसका नाम 'संतक्षण' पड़ा है। ३८. (ते णारगा".......असाहुकम्मा) वृत्तिकार ने नारक शब्द का अर्थ नरकपाल किया है और 'असाहकम्मा' को उसका विशेषण माना है। हमने 'नारक' शब्द से नैरयिक अर्थ ग्रहण किया है। 'असाहुकम्मा' उसका विशेषण है । १. वृत्ति, पत्र १३० । २. चणि, पृ० १२६ : धर्म: स्वभाव इत्यर्थः, स्वभावप्रतप्तेष्वेव तेषु । ३. चणि, पृ० १२६ : क्रूराणि कर्माणि ये: पूर्व कृतानि ते क्रूरकर्माणः नारकाः अथवा ते क्रूरकर्माणोऽपि णयरपाला जे गरयग्गितत्ते वि पुनरपि अभितापयन्ति, यत एव हि मंबा नरकपाला मन्दबुद्धय इत्यर्थः नरकप्रायोग्यान्येव कर्माण्युपचिन्वन्ति । ४. वृत्ति, पत्र १०३ : क्रूरकर्माणो नरकपालाः। ५. (क) चणि, पृ० १२६ : जीवं नाम जीवन्त एव । ज्योतिषः समीपे उपजोति पत्ता समीपगताभितापवद् मत्स्यास्तप्यन्ते, किमंग पुण तत्तेत एव छूढा अयोकवल्ले वा, सीतयोनित्वाद्धि मत्स्यानां उष्णदुःखानभिज्ञत्वाच्च अतीवाग्नौ दुःख मुत्पद्यते इत्यतो मत्स्यग्रहणम् । (खवृत्ति, पत्र १३० : यथा जीवन्तो मत्स्या मीना उपज्योतिः अग्नेः समीपे प्राप्ताः परवशत्वादन्यत्र गन्तुमसमस्तित्रैव तिष्ठन्ति, एवं नारका अपि, मत्स्यानां तापासहिष्णत्वादग्नावत्यन्तं दुःखमुत्पद्यत इत्यतस्तद्ग्रहणमिति । ६. चूणि, पृ० १३० : समस्तं तच्छणं संतच्छणं णाम जत्थ विउविताणि वासि-परसु-पट्टिसाणि, तंबलिओ जहा खइरकलैं तच्छेति एवं ते वि वासीहि तच्छिज्जति अण्णे कुहाडएहि कट्टमिव तच्छिज्जति । ७. वृत्ति, पत्र १३० : नारका नरकपाला यत्र नरकावासे स्वभवनादागताः असाधुकर्माणः क्रूरकर्माणो निरनुकम्पाः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy