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सूयगडो १
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अध्ययन ५: टिप्पण ३०-३४
श्लोक १०: ३०. प्रज्ञाशून्य नैरयिक (लुत्तपण्णो)
प्रज्ञाशून्य नैरयिक नहीं जान पाता कि उस दुर्गम स्थान से निकलने का मार्ग कौनसा है। वेदना की अधिकता के कारण उसकी सारी प्रज्ञा नष्ट हो जाती है।'
वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-उस समव अवधिज्ञान का विवेक लुप्त हो जाता है।' ३१. नहीं जानता हुआ (अविजाणओ)
चूणिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं .. १. उस गुहा में प्रविष्ट नैरयिक नहीं जानता कि द्वार कहां है । २. वह जानता है कि यहां मेरा उष्णता से परित्राण होगा। ३. मनुष्य-लोक में वह अज्ञानी था इसलिए उसने ऐसा कर्म किया।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ यह किया है-नैरयिक वेदना से अत्यन्त अभिभूत हो जाता है। अतः उसे अपने पूर्वकृत दुश्चरित याद नहीं रहते।' ३२. तापमय (घम्मठाणं)
तापमय स्थान, उष्णस्थान ।' उष्ण वेदना वाले सारे नरक धर्मस्थान ही होते हैं। नरकपाल विशेष तापमय स्थानों की विकुर्वणा करते हैं। उन स्थानों में प्रवेश और निर्गम-दोनों दुःखद होते हैं।'
देखें-टिप्पण ५०। ३३. कर्म के द्वारा (गाढ)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं:१. ऐसे कर्म जिनसे छुटकारा पाना बहुत कठिन होता है, दुर्मोक्षणीय कर्म । २. निरन्तर।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'अत्यर्थ' किया है।' ३४. अत्यन्त दुःखमय है (अइदुक्खधम्मयं) वह स्थान ऐसा है जहां एक निमेष भर के लिए भी दुःख से विश्राम नहीं मिलता। कहा भी है
अच्छिणिमोलणमेत्तं णत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं ।
णिरए रइयाणं अहोणिसं पच्चमाणाणं ।। १. चूर्णि, पृ० १२६ : लुप्ता प्रज्ञा यस्य स भवति लुत्तपण्णो न जानाति कुतो निर्गन्तव्यम् ? इति वेदनाभिर्वाऽस्य प्रज्ञा सर्वा हता। २. वृत्ति, पत्र १३० : लुप्तप्रज्ञः अपगतावधिविवेकः ।। ३. चूणि, पृ० १२६ : अविजाणतो णाम नासौ तस्यां विजानाति 'कुतो द्वारम् ? इति । अथवा ऽसौ जानाति अध (? इध) में उसिण
परित्राणं भविण्यति इह चासौ अविज्ञायक आसीद् यस्तद्विधानि कर्माण्यकरोत् । ४. वृत्ति, पत्र १३० अतिवृतः अतिगतो वेदनाभिभूतत्वात् स्वकृतं दुश्चिरितमजानन् । ५. वृत्ति, पत्र १३० : धर्मस्थानम् उष्णस्थानं तापस्थानमित्यर्थः।। ६. चूणि, पृ० १२६ : धर्मणः स्थानं धर्मस्थानम्, सर्व एव हि उण्हवेदना नरकाः धर्मस्थानानि, विशेषतस्तु विकुर्वितानि स्थानानि
दुःखनिष्क्रमणप्रवेशानि । ७. चूणि पृ० १२६ : गाढं उण्हं दुक्खोवणितं गाढेर्वा दूर्मोक्षणीयैः कर्मभिः ।.... 'अथवा गाढमिति निरन्तरमित्यर्थ ।। ८. वृत्ति, पत्र १३० : गाढं ति अत्यर्थम् । १. वृत्ति, पत्र १३० : अतिदुःखरूपो धर्मः-स्वभावो यस्मिन्निति, इवमुक्तं भवति-अक्षिनिमेषमात्रमपि कालं न तत्र दुःखस्य विधाम इति ।
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