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सूयगडो १
प्रध्ययन: टिप्पण २६-३४
चूर्णिकार ने इस शब्द के द्वारा मैथुन और परिग्रह का ग्रहण किया है। वृत्तिकार ने एक स्थान पर इसका अर्थ-मैथुन और दूसरे स्थान पर मैथुन और परिग्रह किया है।' २६. अयाचित अवग्रह (उग्गहं च अजाइयं)
चूणिकार ने अयाचित अवग्रह का अर्थ अदत्तादान किया है।' ३०. शस्त्र-प्रयोग (सत्थावाणाई)
चूर्णिकार ने शस्त्र का अर्थ असंयम किया है।' मृषावाद आदि असंयम के कारण हैं । इसलिए इन्हें शस्त्रादान कहा गया है।
श्लोक ११: ३१. माया (पलिउंचणं)
इसका संस्कृत रूप है- परिकुञ्चनं । जिससे सारी क्रियाएं वक्र हो जाती हैं, वह है परिकुञ्चन । यह माया का वाचक है। ३२. लोभ (भयणं)
जिसके द्वारा आत्मा टूट जाता है, झुक जाता है, अपनी मर्यादा से हट जाता है वह है लोभ । यह "भजन' शब्द लोभ का पर्याय है।
चूर्णिकार ने इसका रूप 'भंजन' किया है।' ३३. क्रोध (थंडिल्ल)
जिसके उदय से आत्मा सत्-असत् के विवेक से विकल हो कर स्थंडिल (भूमी) की तरह हो जाती है, वह स्थंडिल है। यह क्रोध का वाचक है।
चूर्णिकार के अनुसार क्रोध चारित्र, शरीर और वर्ण आदि को स्थंडिल बना देता है।' ३४. अभिमान (उस्सयणाणि)
उच्छ्य ऊंचाई का वाचक है। मनुष्य जाति, कुल, ज्ञान आदि के दर्प से अपने आपको ऊंचा मान लेता है। यह मान का वाचक है।"
देखें-२/५१ का टिप्पण।
१. चूर्णि, पृ० १७७ : बहिखं मिथुन-परिग्रही गृह्यते । २. वृत्ति, पत्र १७६ : बहिद्धति मैथुनं यदि वा बहिद्धमिति मैथुनपरिग्रहो। ३. चूणि, पृ० १७७ : अजाइयमिति अदत्तादाणं । ४. चूणि, पृष्ठ १७७ : शस्यते अनेनेति शस्त्रम्, शस्त्रस्य आदानानि शस्त्रादानानि, बूयन्त इत्यर्थः । कस्य शस्त्रस्य ? असंयमस्य । ५. (क) चूणि, पृष्ठ १७७ : सर्वतः कुञ्चनं पलिउचणं माया ।
(ख) वृत्ति, पत्र १७६ : परि-समन्तात् कुच्यन्ते -- वक्रतामापाद्यन्ते क्रिया येन मायानुष्ठानेन तत्पलिकञ्चनं मायेति भण्यते । ६. वृत्ति, पत्र १७६ : भज्यते सवत्रात्मा प्रह्वीक्रियते येन स भजनो लोभः । ७. चूणि, पृ० १७७ । भञ्जते भज्यते वाऽसविति असंयतर्भजनः लोभः । ८. वृत्ति, पत्र १७६, १८० : तथा यदुदयेन ह्यात्मा सदसद्विवेकविकलत्वात् स्थण्डिलवद्भवति स स्थण्डिल:-क्रोधः । ६. चूर्णि, पृ० १७७ : स्थण्डिलः क्रोधः चारित्रं स्थण्डिलस्थानीयं करोति, क्रोध एव स्थण्डिलः वपुर्वर्गादि च । १०. वृत्ति, पत्र १८० : यस्मिश्च सत्यूवं श्रयति जात्यादिना वध्माता पुरुष उत्तानीमवति स उच्छायो मानः ।
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