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सूयगडो १
३५. कर्म के आयतन ( धुत्तादाणाणि )
'धूर्त' का अर्थ है कर्म और 'आदान' का अर्थ है - आयतन । सूत्रकार का अभिप्राय है कि माया, लोभ, क्रोध और मान- ये कर्म-बन्ध के आयतन हैं ।
३६. रंगना ( रयणं)
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वृत्तिकार ने 'धुत्त' के स्थान पर 'धूण' क्रियापद मान कर उसे सभी के साथ योजित करने का निर्देश किया है। जैसेमाया को धुन ( कंपित कर ), लोभ को धुन क्रोध को धुन और मान को धुन ।' उन्होंने आदान का अर्थ - कर्मबंध का कारण किया है।"
इलोक १२ :
वस्त्र, दांत, नख आदि को रंगना । *
३७. वमन विरेचन ( वमणं च विरेवणं)
वमन और विरेचन भी चिकित्सा के अंग हैं। वमन का प्रयोग किया जाता था ।" वमन में मदनफल का प्रयोग होता था । '
वृत्तिकार ने वमन को विरे (ऊ-विरेचन) कहा है।"
विरेचन से बल का विकास होता है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है और शरीर का वर्णं मनोहारी हो जाता है। "
३८. वस्तिकर्म (कम्म)
श्रध्ययन 8 : टिप्पण ३५-३८
प्राचीन काल में मुंह की सुंदरता बढाने और वर्ण को सुवर्ण बनाने के लिए
अपान मार्ग के द्वारा पानी, स्नेह आदि के प्रक्षेप को वस्तिकर्म कहा जाता है ।
दशकालिक सूत्र के चूर्णिकार अगस्त्यसिंह स्वविर और जिनदास महत्तर ने तथा टीकाकार हरिभद्र ने अपान मार्ग से स्नेह आदि को चढाना वस्तिकर्म माना है ।"
निशीव पूर्णिकार के अनुसार वस्तिकर्म कटि-दात, अर्ज आदि बीमारियों को मिटाने के लिए किया जाता था।" देखें - दशकालिक ३ / २ का टिपण
१. चूर्ण, पृ० १७७ : धुत्तादाणाणि ... धूर्त्तस्याऽऽयतनानि कर्मप्रसूतप इत्यर्थः ।
२. वृत्ति, पत्र १८० : धूनयेति प्रत्येकं क्रिया योजनीया, तद्यथा पलिकञ्चनं– मायां धूनय धूनीहि वा, तथा भजनं-लोभं तथा स्व को तथा उच्छ्रायमानम् ।
३. वृत्ति, पत्र १५० एतानि पलिकुचनादीनि अस्मिन् लोके आदानानि वर्त्तन्ते ।
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आदीयते स्वीक्रियते अमीभिः कर्म इत्यादानानि । ( सूत्रकृतांग ११५३, वृत्ति पत्र ३९ )
४. चूर्ण, पृ० १७८ : रयणं तेषां (वस्त्राणं) दन्त- नखादीनां च ।
५ नृणि, पृ० १७८ मुखवर्णसौरयार्थं वमनं करोति ।
६. दशवेकालिक, हरिभद्रीया टीका, पत्र ११८ वमनम् मदनफलादिना ।
७ वृत्ति, पत्र १५० : वमनम् ऊर्ध्वविरेकः ।
८. पूर्ण पृ० १७८ विरेचनमय बनाउन-वर्णप्रसादार्थम ।
(क) सायं ३०२, अगस्त्यपूर्ण, पृ० ६२ शिरोहादिदानत्वं धम्ममयो पालियाउलो कोरति सेणं अपाणाणं सिहा
दिदाणं वस्थिकम्मं ।
(ख) वही, जिनदास णि, पृ० ११५: वत्थिकम्मं नाम वत्थी दइओ भण्णइ, तेण दद्दएण घयाईणि अधिट्ठाणे दिज्जति । (ग) वही, हरिभद्रया टोका, पृ० ११८ वस्टिन ने स्नेहानं ।
१०. निशीय भाष्य गाथा ४३३०, चूर्णि पृ० ३६२ : कडिवाय अरिसविणासणत्थं च अपाणद्दारेण वस्थिणा तेल्लादिप्पवाणं वत्थकम्मं ।
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