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सूपगडो १
२६. शिरोवेध (सिरोवेधे)
चूर्णि और टीका में इसके स्थान पर 'पलिमंथ' पाठ व्याख्यात है । ज्ञाताधर्मकथा में 'सिरावेह' पाठ मिलता है । वृत्तिकार ने उसका अर्थ 'नाडीवेधन' किया है।' यहां 'सिरोवेधे' पाठ उपयुक्त लगता है ।
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'पलीमंथ' का अर्थ -- संयम का उपघात करने वाला किया है ।" इलोक १३ :
४०. गन्धमाल्य ( गंध मल्लं )
गंध का अर्थ है - इत्र आदि सुगंधित पदार्थ और माल्य का अर्थ है -- फूलों की माला । का टिप्पण
देखें- दशर्वकालिक ३ / २ गंध
४१. स्नान ( सिणाणं)
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स्नान दो प्रकार का होता है
१. देश- स्नान -- शौच स्थानों के अतिरिक्त आंखों के भौं तक धोना ।
२. सर्व स्नान - सारे शरीर का स्नान ।
जैन परंपरा में मुनि के लिए दोनों प्रकार के स्नान अनाचीर्ण हैं ।
देखें – दशकालिक ३ / २ सिणाणं" का टिप्पण |
४२. दांत पखालना (दंतपक्खालणं )
दांतों को कदम्ब के दतून से पखालना, दतोन करना ।
यह भी अनाचार है । दशवैकालिक सूत्र के तीसरे अध्ययन के तीसरे श्लोक में 'दंतपहोयणा' और नौंवे श्लोक में 'दंतवणे' शब्द का प्रयोग मिलता है। दोनों की भावना समान है ।
देखें- दशकालिक ३/२६ का दि
४३. परिग्रह, स्त्री, हस्तकर्म ( परिग्गहित्थिकम्मं )
इसमें तीन शब्द है-परि स्त्री और कर्म
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चूर्णिकार ने सविस आदि पदार्थों के प्रण को परिग्रह माना है। उन्होंने स्त्री के तीन प्रकार बतलाए है- कुमारिका, परिणिता और विधवा अथवा देवी, मानुषी और तरश्ची । कर्म शब्द के द्वारा 'हस्तकर्म' गृहीत है ।"
वृत्तिकार ने पूर्वोक्त सभी अर्थ स्वीकार करते हुए कर्म का वैकल्पिक अर्थ - सावद्य अनुष्ठान किया है।"
चूर्णिकार ने यहां एक प्रश्न उपस्थित किया है कि इसी अध्ययन के दसवें श्लोक में 'बहिर्द्ध' शब्द के द्वारा स्त्री और परिग्रह का वर्जन किया जा चुका है। यहां पुनः वर्जन निर्दिष्ट है । क्या यह पुनरुक्तदोष नहीं है ? समाधान देते हुए वे लिखते हैं कि यह पुनरुक्त दोष नहीं है, क्योंकि इसमें उनके भेदों का उल्लेख किया गया है।"
१. ज्ञाताधर्मकथा, वृत्ति पत्र १६० : नाडीवेधनानि रुधिरमोक्षणानीत्यर्थः ।
२. (क) चूणि, पृ० १७८ : तत्थ पलिमंथो संजमस्स ।
(ख) वृत्तपत्र १०० संयमयमिन्यकारि संयोपधातरूपम् ।
अध्ययन : टिप्पण ३६-४३
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३. वृत्ति, पत्र १८० : दन्तप्रक्षालनं कदम्बकाष्ठादिना ।
परियहं इत्यम्मं च परिमाहो सचितायो इस्यो तिविधाओं कम्म त्यम्मं ।
४. पूर्णि, पृ० १७८ ५. वृत्ति, पत्र १८०
परिग्रहः सच्चित्तादेः स्वोकरणं तथा स्त्रियो दिव्यामानुषर्तरश्च्यः तथा 'कर्म' हस्तकर्म सावद्यानुष्ठानं वा । ६. वृषि, पु० १७८: स्यात् पूर्व हिमपदिष्टं इत्यतः पुनरुक्तम् उच्यते तवदर्शनान पुनरुम्।
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