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सूयगडो १
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अध्ययन २ टिप्पण ६५-६६
है । उन्होंने बताया है कि अन्तर्गत क्रोध नेत्र, मुख आदि के विकार से प्रगट हो जाता है इसलिए क्रोध के लिए प्रकाश शब्द का प्रयोग
किया गया है।"
वृत्तिकार ने प्रत्येक शब्द का हार्द समझाया है । माया के द्वारा अपने अभिप्राय को छिपाया जाता है, इसलिए उसका नाम 'छन्न' है । 'पसंस' पद का संस्कृत रूप प्रशंस्य मानकर वृत्तिकार ने लिखा है कि लोभ सबके द्वारा प्रशस्य माना जाता है, इसलिए उसका नाम प्रशस्य है | मान उत्कर्ष की भावना उत्पन्न करता है, इसलिए उसका नाम उत्कर्ष है । क्रोध अन्तर में रहता हुआ भी मुख, दृष्टि और भौंहें आदि के विकार से प्रगट होता है, इसलिए उसका नाम प्रकाश है ।"
प्रस्तुत सूत्र के १।३९ में भी लोभ आदि के लिए इनसे भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है ।
प्रस्तुत सूत्र के ९।११ में क्रोध, मान, माया और लोभ के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ है । भगवती १२११०३-१०६ में क्रोध, मान, माया और लोभ के पर्यायवाची शब्द संकलित हैं। वहां उत्कर्ष शब्द मान के पर्यायवाची शब्दों में उल्लिखित है । शेष शब्द वहां उपलब्ध नहीं हैं ।
६५. घुत का (घुवं
इसका अर्थ है - प्रकंपित करना । कर्मबंध को प्रकंपित करने वाला आचरण धुत कहलाता है ।
६६. सम्यक विवेक (सुविवेयं)
विवेक का अर्थ है - विवेचन या पृथक्करण । घर परिवार आदि को छोड़ना बाह्य विवेक है और आन्तरिक दोषों- कषाय आदि को छोड़ना आन्तरिक विवेक या कषाय-विवेक है। चूर्णिकार ने सुविवेक, सुनिष्क्रान्त और सुप्रव्रज्या को पर्यायवाची माना है ।" श्लोक ५२ :
६७. स्नेह रहित (अणिहे)
भूमिकार ने इसका संस्कृतरूप 'अति' किया है। उनके अनुसार मुनि परिषद्दों से निहत नहीं होता, उपस्या करने में शक्तिहीनता का परिचय नहीं देता, इसीलिए वह अनिहत कहलाता है ।"
वृत्तिकार ने 'अनिह' का मूल अर्थ अस्निह और वैकल्पिक अर्थ उपसर्गों से अपराजित किया है ।"
६८. आत्महित में रत (सहिए)
' और वृत्ति दोनों में 'सहिए' पद के 'सहित' और 'स्वहित' दोनों अर्थ किए गए है जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सम्यक् प्रकार से स्थापित होता है वह 'सहित' और जो आत्मा में स्थापित होता है वह 'स्वहित' कहलाता है ।
आयारो ( ३।३८, ६७, ६६) में 'सहिए' शब्द का प्रयोग मिलता है। उसके चूर्णिकार ने वही अर्थ किया है जो सूत्रकृतांग की
१, चूणि, पृ० ६८ : द्रव्यच्छन्नं निधानादि, भावच्छन्नं माया । भूशं शंसा प्रार्थना लोभः । उक्कसो मानः । प्रकाशः क्रोधः । स हि अन्ततोऽपि नेत्र-वपत्रादिभि ।
२. वृत्ति, पत्र ७० छन्नंति ति माया तस्याः स्वाभिप्रायप्रच्छादनरूपत्वात् तां न कुर्यात्, घशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः तथा प्रशस्यते - सर्वैरप्यविगानेनाद्रियत इति प्रशस्यो- लोभस्तं च न कुर्यात्, तथा जात्यादिभिर्मदस्थानैर्लघुप्रकृति पुरुषमुत्कर्षयतीत्युकर्षको मानस्तमपि न कुर्यादिति सम्बन्ध:, तथाऽन्तव्यवस्थितोऽपि मुखदृष्टि मङ्गविकारः प्रकाशोभवतीति प्रकाश: क्रोधः ।
३ चूर्णि पृ०१८ हदारादिभ्यो विवेक बाह्य आभ्यन्तरस्तु कषायविवेकः ... सुविवेगोत्ति वा सुणिक्खंतं ति वा सुपव्वज्जत्ति वाए ।
४. चूर्ण, पृ० ६८ : अनिहो नाम अनिहतः परोषहैः तपः कर्मसु वा नात्मानं निधयति ।
५. वृति पत्र ६७
इत्यादिति इति निह न निहा अस्निहः सर्वत्र ममत्वरहित इत्यर्थः परिवा परीषहोपनियते
इति निः, न निहनि उपसरपराजितइत्यर्थः ।
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६. ०६८ मानदिषु सम्य हितः सहितः जाणावीहि में आस्मनि वा हितः स्वहितः ।
७. वृत्ति पत्र ७० सह हितेन वर्तत इति सहितः सहितो को या ज्ञानादिभिः स्वहितः आत्महितो वा सदनुष्ठानप्रवृत्तेः ।
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