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सूयगडो १
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अध्ययन २: टिप्पण ६४ कयकिरिए
गृहस्थ कोई आरंभ करता है, प्रवृत्ति या निर्माण करता है, संयमी को उसमें तटस्थ रहना चाहिए-गृहस्थ के आरंभ की प्रशंसा या अनुमोदना नहीं करनी चाहिए। जो ऐसा करता है उसे 'कृतक्रिय' कहा जाता है।'
वृत्तिकार ने इसका अर्थ-संयमपूर्ण क्रिया करने वाला किया है।' मामए
मेरा देश, मेरा गांव, मेरा कुल, मेरा पुरुष-इस प्रकार ममत्व करने वाला 'मामक' कहलाता है । दशवकालिक सूत्र की चूलिका में यह निर्देश है कि मुनि ग्राम आदि में ममत्व न करे।
निशीथभाष्य चूणि में 'मामक' की विशद परिभाषा प्राप्त होती है। जो व्यक्ति ऐसा कहता है-मेरे उपकरणों का कोई दूसरा व्यक्ति उपयोग न करे। मेरी स्थंडिल भूमि में कोई दूसरा न जाए। मेरे आहार, पानी आदि का कोई उपभोग न करें-वह मामक होता है। उसका अपने समस्त भोगोपभोग के प्रति ममत्व है, इसीलिए प्रतिषेध करता है।
जो यह कहता है-'यह कितना सुन्दर देश है । यह वृक्ष, कुए, सरोवर, तालाब आदि से युक्त है। ऐसा देश दूसरा नहीं है । यहां सुखपूर्वक रहा जा सकता है। यहां स्थान, भक्त-पान, उपकरण आदि की उपलब्धि सुलभ है। यहां अनेक प्रकार के धान्य निष्पन्न होते हैं । यहां दूध की प्रचुरता है। यहां के लोगों का वेश और शरीर सुंदर है । यहां के लोग आभिजात्य और नवीन हैं । वे साधुओं के भक्त हैं, उपद्रवकारी नहीं हैं।' इस प्रकार की भावना अभिव्यक्त करने वाला भी 'मामक' होता है।'
प्रस्तुत आगम के ४।१२ में "कुशील" शब्द की व्याख्या में चूर्णिकार ने काथिक, प्राश्निक, संप्रसारक और मामक को कुशील माना है।
श्लोक ५१:
६४. (छण्णं च.........पगास माहणे)
चूर्णिकार ने छन्न का अर्थ माया, प्रशंसा का अर्थ प्रार्थना या लोभ, उत्कर्ष का अर्थ मान और प्रकाश का अर्थ क्रोध किया १. चूणि, पृ०६७ : कतकिरिओ णाम कृतं परैः कर्म पुट्ठो अपुट्ठो वा भणति शोभनमशोभनं वा एवं कर्तव्यमासिद् न वेति वा । २. वृत्ति, पत्र ७० : कृता-स्वभ्यस्ता क्रिया-संयमानुष्ठानरूपा येन स कृतक्रियः । ३. चूणि, पृ० ६५ : मामको णाम ममीकारं करोति देशे ग्रामे कुले वा एगपुरिसे वा।
(ख) वृत्ति, पत्र ७० : मामको ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं परिग्रहाग्रही । ४. दशवकालिक चूलिका २१८ : गामे कुले वा नगरे व देसे ।
ममत्तभावं न कहिं चि कुज्जा ॥ ५.निशीथ भाष्य गाथा ४३५६,४३६० : आहार उवहि देहे, वीयार विहार वसहि कुल गामे।
पडिसेहं च ममत्तं, जो कुणति मामतो सो उ॥ अह जारिसओ देसो, जे य गुणा एत्य सस्सगोणादी।
सुंदरअभिजातजणो, ममाइ निक्कारणोवयति ॥ निशीथ चूणि, पृ० ४००
....... .. उवकरणादिसु जहासंभवं पडिसेहं करेंति, मा मम उवकरणं कोइ गेण्हउ । एवं अण्णेसु वि वियारभूमिमादिएसु पडिसेहं सगच्छपरगच्छयाणं वा करेति । आहारा दिएसु चेव सब्वेसु ममत्तं करेति । भावपडिबंधं एवं करेंतो मामओ भवति ।
अह त्ति अयं जारिसो देसो रुक्ख-वावि-सर-तडागोवसोभितो एरिसो अण्णो णस्थि । सुहविहारो। सुलभवसहिभत्तोवकरणादिया य बहू गुणा । सालिक्खुमादिया य बहू सस्सा णिप्फज्जंति य । गो-महिस-पडरत्ततो य पउरगोरसं । सरीरेण वत्यादिएहि सुंदरो
जणो, अभिजायत्तणतो य कुलीणो, ण साहुसुवद्दवकारी, एवमादिएहिं गुणेहिं भावपडिबद्धो णिक्कारणिओ वा वयति-प्रशंसतीत्यर्थः । ६. चूणि, पृ० १०७ : कुत्सितसोला कुशीला पासत्थादयः पंच णव वा।..."एते य पंच, इमे य चत्तारि-काधिय-पासणिय-संपसारग
मामगा।
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