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________________ सूयगडो १ ११२ कहा है। इसी सूत्र की १/१६ की वृत्ति में वृत्तिकार ने चूर्णिकार का अनुसरण किया है।' निशीथ भाष्य और चूर्णि में इसका अर्थ कुछ विस्तार से मिलता है। एक जैसी प्रतीत होने वाली वस्तुओं का विभाजन करना, दो प्रतियोगियो या प्रतिस्पर्धियों के विवाद का निपटारा करना, लौकिक शास्त्रों के सूत्र और अर्थ का प्रतिपादन करना, अर्थशास्त्र की व्याख्या करना, सेतुबंध आदि का तथा स्त्रीवेद, श्रृंगारकथा आदि ग्रन्थों का विवेचन करना - इन सबको करने वाला 'पास' होता है।' आप्टे के 'संस्कृत-इंग्लिश कोष' में प्राश्निक शब्द के ये अर्थ मिलते हैं - ( १ ) An examiner ( परीक्षक ), An arbitrator ( मध्यस्थ) A judge (न्यायाधीश), An umpire (निर्णायक ), अहो प्रयोगाभ्यंतर प्राश्निकाः । तद् भगवत्या प्राश्निकपदमभ्यादितव्यम् । संपसारए जो मुनि वर्षा आदि के संबंध में तथा पदार्थों के मूल्य बढ़ने घटने संबंधी बात बताता है वह संप्रसारक होता है । यह चूर्णि की व्याख्या है ।" प्रस्तुत सूत्र के ८१६ में चूर्णिकार ने गृहस्थों के असंयममय कार्यों का समर्थन करने वाले तथा उनका उपदेश देने वाले को संप्रसारी माना है ।" वृत्तिकार ने संप्रसारक का अर्थ वृष्टि, अर्थकाण्ड आदि की सूचक कथा का विस्तार करने वाला किया है। प्रस्तुत सूत्र के ५ की वृत्ति में संप्रसारण का अर्थ है-- पर्यालोचन या उपदेश-दान । मुनि गृहस्थों के साथ सांसारिक पर्यालोचन न करे और उन्हें असंयमप्रवृत्ति का उपदेश न दे। * असंयममय कार्य का विवरण निशीथ भाष्य और चूर्णि में मिलता है। गृहस्थ को निष्क्रमण और प्रवेश का मुहूर्त्त देना, सगाइ कराना, 'विवाहपटल' आदि ज्योतिष ग्रंथों के आधार पर विवाह का मुहूर्त्त देना, 'अर्थकांड' आदि ग्रंथों के आधार पर द्रव्य के क्रयविक्रय का निर्देश देना - ये सब असंयममय कार्य हैं। इन्हें करने वाला संप्रसारी होता है । " १. वृत्ति पत्र ७० प्रश्नेन राजाविकिवृत्तरूपेण दर्पणा विप्रश्ननिमित्तरूपेण वा चरतीति प्राश्निकः । २ वृत्तपत्र १८१ : प्रश्नस्य - आदर्श प्रश्नादेः आयतनम् आविष्करणं कथनं यथा विवक्षितप्रश्न निर्णयनानि यदि वा प्रश्नायतनानि लौकिकानां परस्परव्यव्हारे मिध्याशास्त्रगतसंशये वा प्रश्ने सति यथावस्थितायनद्वारेणायतनानि निर्णयानीति । ३. निशीय माध्य, गावा ४३६-४३५०, भूमि, पृष्ठ २६६ श्रध्ययन २ : टिप्पण ६३ लोइयवहारे लोए सत्थादिए कन्तु । पासणियतं कुगतो, पारात्रि सो व नाययो ॥ साधारणे विरेगं, साहति पुत्तपडए य आहरणं । दोह य एगो पुसो, दो महिलाओ एस्स | जिस अर्थ वा लोइयान सत्यार्थ भाववसाहत एनियादी उत्तरे ॥ छंदा दियाणं लोगसत्याणं सुत्तं कहेति अत्थं वा, अहवा अत्थं व ति अत्थसत्थं सेतुमादियाण वा बहूणे कव्वाणं, कोहल्ल याण य, वेसियमादियाण य भावत्थं पसाहति । छलिय सिंगारकहा त्थोवण्णगादी । ४. चूर्णि, पृ० ६७ : संपसारको नाम सम्प्रसारकः, तद्यथा - इयं वरिसं कि देवो वासिस्सति ण वत्ति ? कि मंडं अग्धहिति वा न वा ? ५. वही, पृ० १७८ : संपसारगो णामं असंजताणं असंजमकज्जेसु साम छंदेति उवदेसं वा । ६. वृत्ति पत्र ७० संप्रसारकः देवष्ट्यर्धकाण्डादिचकवा विस्तारकः । ७. वृत्ति, पत्र १८१ : सम्प्रसारणं -- पर्यालोचनं परिहरेदिति वाक्यशेषः एवमसंयमानुष्ठानं प्रत्युपदेशदानम् । ८. निशीथ भाष्य, गाथा ४३६१-४३६२ : अस्संजयाण भिक्खु, कज्जे अस्संजमप्पवत्तेसु । जो देती सामत्थं, संपसारओ सो य णायव्वो । चूर्णि, पृष्ठ ४०० : Jain Education International ........ आवाहो विडिया अत्मादिए गये वाह विवाह विषयक था। गुरुलाघवं कहते, गिहियो व पसारीओ ॥ गिहीणं असंजयाणं गिहाओ दिसि जत्तए वा णिग्गमयं देति । गिहि (स्स) जत्ताओ वा आगयस्स पावेसं देति । सुहं दिवसे कहेलि मा वा एयरस देहि इमस वा देहि विवाहाविएहि जोतिसह विवाहयेदेति । इमं व विवाह, दमं वा किणाहि । एवमादिए कम्जेसु गिहीनं गुरुलाप कहें तो संपसारसणं पावति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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