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________________ [३२] ४५-४६. कृतदाव से धर्म की तुलना ४७-४६. ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा और स्वाख्यात समाधि ५०. मुनि के लिये अकरणीय का विवेक ५१. कषाय-विजय से विवेक की उपलब्धि ५२. आत्महित की साधना के दुर्लभ अंग ५३-५४. महावीर की देन-सामायिक की परम्परा ५५. कर्म का अपचय कैसे? ५६. काममूर्छा और ऊर्ध्व (मोक्ष) दृष्टि ५७. पांच महाव्रत के धारक कौन ? ५८. महावीर की समाधि के अज्ञाता ५६-६०. कामैषणा का परिणाम ६१. असाधुता और शोक का अविनाभाव ६२. जीवन की अनित्यता का बोध ६३. हिंसा का परिणाम ६४. हिंसा की प्रवृत्ति का एक कारण-परलोक में संदेह ६५. द्रष्टा का वचन श्रद्धेय ६६. आत्म-तुला ६७. अगारवास में धर्म की परिपालना और निष्पत्ति ६८. सत्य का अनुसन्धान ६६. मोक्षार्थी की चर्या ७०-७१. अशरण भावना का चिन्तन ७२. अपना अपना कर्म ७३. बोधि का दुर्लभता ७४-७६. धर्म की त्रैकालिकता और निष्पत्ति का निर्देश ३७-३६. शिथिल व्यक्ति द्वारा भोग-निमंत्रण की स्वीकृति ४०-४१. अध्यात्म पथ में कायर की स्थिति ४२-४३. भविष्य का भय और ज्योतिष आदि का आलम्बन ४४. सन्देह की स्थिति ४५-४६. आत्महित साधक की परमवीर से तुलना ४७-५७. परतीथिकों के आरोप और उनका निराकरण ५८. बहुगुण उत्पादक चर्चा का निर्देश ५६-६०. रुग्ण-सेवा और उपसर्ग-सहन का उपदेश ६१-६५. अन्यान्य ऋषियों की चर्या को सुन, आत्म-विषीदन की स्थिति ६६-६८. सुख से सुख प्राप्ति की स्थापना और निरसन ६६-७७. अब्रह्मचर्य का समर्थन, निरसन और विपाक ७८. कामभोग की निवृत्ति से संसार-पारगामिता ___७६. संयतचर्या का निर्देश ८०. विरति, शान्ति और निर्वाण ८१-८२. रुग्ण-सेवा और उपसर्ग-सहन का उपदेश चौथा अध्ययन १-६. श्रामण्य से च्युत करने वाली स्त्रियों का चरित्र चित्रण १०. स्त्री-संवास से होने वाला अनुताप ११. स्त्री को विषबुझे कांटे की उपमा १२. तपस्वी और स्त्री-संवास १३-१६. स्त्री-परिचय और उससे होने वाली दोषापत्तियां १७. द्विपक्ष-सेवन की विडम्बना १८-१६. कुशील भिक्षु का आचरण और मनःस्थिति २०. प्रज्ञावान् का स्त्री-संवास २१-२२. व्यभिचार की फलश्रुति २३-२६. स्त्रियों की चंचल मनःस्थिति का चित्रण २७. स्त्रियों के संवास से श्रामण्य का नाश २८-२९. पाप का अपलाप ३०. अन्न-पान का प्रलोभन ३१. मोह-मूढ़ की दशा ३२-४६. स्त्री में आसक्त व्यक्ति की विडम्बना ५०. कर्मबंध का कारण-कामभोग का सेवन ५१. कामभोग भय-उत्पादक ५२. परक्रिया-स्त्री के स्पर्श का निषेध ५३. कामवांछा से मुक्त होने का निर्देश पांचवां अध्ययन १. सुधर्मा का नरक विषयक प्रश्न २. नरक का अभिवचन तीसरा अध्ययन १-३. लौकिक शूर और संयमी शूर की तुलना ४. शीत परीषह और मुनि ५. उष्ण परीषह और मुनि ६-७. याचना परिषह और मुनि ८. वध परीषह और मुनि ९-११. आक्रोश परीषह और मुनि १२. कठोर स्पर्श का परीषह और मुनि १३. केशलोच और ब्रह्मचर्य की दुश्चरता और मुनि १४-१६. वध और बन्धन से पराजित मुनि की मनःस्थिति १७. परीषह विजय का निर्देश १८-२८, ज्ञातिजनों द्वारा दिये जाने वाले अनुकूल परीषहों के प्रकार २६. ज्ञाति-सम्बन्ध पाताल की भांति दुस्तर ३०-३१. संग आश्रव और आवर्त से तुलित २३-३६. भोगों के लिये निमन्त्रण Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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