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सूयगडो १
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श्लोक ४ :
१४. (अस्स च लोए
"तह अण्णा वा )
चूर्णिकार ने इन दो चरणों को बहुत विस्तार से समझाया है। उनके अनुसार इनकी व्याख्या इस प्रकार है-कर्म चार प्रकार के होते हैं'
१. इहलोक में दुश्चीर्ण कर्म इहलोक में अशुभफलविपाक वाले होते है
२. इहलोक में दुश्चीर्ण कर्म परलोक में अशुभफलविपाक वाले होते हैं ३. परलोक में दुश्चीर्ण कर्म इहलोक में अशुभफलविपाक वाले होते हैं ४. परलोक में दुश्चीर्ण कर्म परलोक में अनुभव वाले होते हैं
अध्ययन ७ : टिप्पण १४
जैसे किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति का इहलोक (वर्तमान) में शिरच्छेद किया तो उसके पुत्र ने उसका पुनः शिरच्छेद कर डाला - यह प्रथम विकल्प है।
किसी व्यक्ति के अशुभ का उदय वर्तमान भव में नहीं हो सका तो उसके नरक आदि में उत्पन्न होने पर वहां उसका विपाक उसे भोगना पड़ा -यह दूसरा विकल्प है ।
परलोक में किया हुआ कर्म इहलोक में फलता है, जैसे मृगापुत्र ने इस भव में अशुभविपाक भोगना पड़ा। (देखें - विपाक सूत्र ) यह तीसरा विकल्प है ।
एक जन्म में किया हुआ कर्म तीसरे या चौथे आदि जन्मों में भोगा जाता है- यह चौथा विकल्प है ।
जैसा कर्म किया जाता है उसका विपाक उसी रूप में या भिन्न प्रकार से भी होता है । जैसे किसी ने दूसरे का सिर काटा है। तो कर्म विपाक में उसका भी सिर कट सकता है। वह अनन्तवार या हजारों वार ऐसा हो सकता है ।
दूसरे चरण में 'तथा' और 'अन्यथा' - ये दो शब्द हैं। चूर्णिकार ने 'तथा' का अर्थ जिस रूप में कर्म किया उसी रूप में उसका विपाक भोगना और 'अन्यथा' का अर्थ जिस रूप में कर्म किया उससे अन्यथा रूप में विपाक भोगना किया है। सिरच्छेद करने वाले का सिरच्छेद होता है - यह तथाविपाक है। सिरच्छेद करने वाले का हाथ या अन्य अंग काटा जाता है अथवा कोई शारीरिक या मानसिक वेदन होता है- यह अन्यथा विपाक है। इस प्रकार जो मनुष्य जितनी मात्रा में दूसरे को पीड़ा पहुंचाता है, उसी मात्रा में अथवा हजारगुना अधिक मात्रा में वह दुःख पाता है ।
वृत्तिकार की व्याख्या इस प्रकार है--१
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१. पृ० १५३लोकम्मा लोगे अफवा १ होए कम्मा परलोए अनुभफल दिवा २ पर लोके दुब्बा काइलोगे अनुमफलविभागा परलोकम्मा परलए अनुमफलखागा ४ रूपम् ? उच्यते केन चित् कस्यचि लोके शिर तस्याप्यन्येन हि एवं इलोगे तं लगेच फल, परगाद उवयस्यस्स (इहलोकतं परलोगे फलति ) २, परलोए कतं इहलोए फलति, जधा दुहविवागेसु मियापुत्तस्स ३ परलोए कतं परलोए फलति, दीहालद्वितीयं कम्मं अण्णम्मि भवे उदिज्जति । अथवा इहलोक इह चारकबन्धः अनेकर्यातनाविशेषः तद् वेदपति, तदन्यथावेदितं कस्यचित् परलोके तेन वा प्रकारेण अन्येन वा प्रकारेण विपाको भवति । तथाविपाकस्तथैवास्य शिरश्छिद्यते, तत् पुनरनन्तशः सहस्रशो वा, अथवा असकृत्तथा सकृदन्यथा अथवा शतशाशियद्यते अन्यथेति सहस्से वा अथवा शिरश्छित्वा न शिरश्छेदमवाप्नोति हस्तच्छेदं पादयेवं वा अन्यतराङ्गवेद वा प्राप्नोति सारी माणसेग वा क्वेग बेचते एवं दुःखमा परस्योत्पादयति जतो मात्रा
शतशोमात्राधिकत्वं प्राप्नोति अन्यथा वा ।
२. वृत्ति, पत्र १५५ : यान्याशुकारीणि कर्माणि तान्यस्मिन्नेव जन्मनि विपाकं ददति, अथया परस्मिन् जन्मनि नरकादौ तस्य कर्म विपाकं ददति 'शताप्रशो वे' ति बहुषु जन्मसु येनैव प्रकारेण तदशुभमाचरन्ति तथैवोदीयते तथा--- अन्यथा वेति, इदमुक्तं भवति -- किञ्चिकर्म सम्भव एवं विपाकं ददाति जिम्यान्तरे या मृगात्रस्य दुःखविपाका विपातस्कन्धे कथितमिति दीर्घकाल स्पिति त्वपरजन्मान्तरितं वेद्यते येन प्रकारेण सहसवानेकशो वा यदि वाऽन्येन प्रकारेण सकृत्सहो या शिरश्वा दिकं हस्तपादादिकं चानुभूयत इति ।
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