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________________ १० सूयगडो १ २४. तेणाविमं तिणच्चा णं ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते दुक्खस्स पारगा।२४॥ तेनापि इदं त्रिज्ञात्वा, न ते धर्मविदः जनाः । ये ते तु वादिनः एवं, न ते दुःखस्य पारगाः ।। प्र. १: समय : श्लो० २४-३१ २४. किसी दर्शन में आ जाने तथा त्रिपिटक आदि ग्रंथों को जान लेने से वे मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते । (इस दर्शन में आ जाने से मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं) जो ऐसा कहते हैं वे दुःख के पार नहीं जा सकते। २५. तेणाविमं तिणच्चा णं ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते मारस्स पारगा।२५॥ तेनापि इदं त्रिज्ञात्वा, न ते धर्मविदः जनाः । ये ते तु वादिनः एवं, न ते मारस्य पारगाः ।। २५ किसी दर्शन में आ जाने तथा त्रिपिटक आदि ग्रन्थों को जान लेने से वे मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते । (इस दर्शन में आ जाने से मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं) जो ऐसा कहते हैं वे मृत्यु के पार नहीं जा सकते। नानाविधानि दुःखानि, अनुभवंति पुनः पुनः । संसारचक्रवाले, व्याधिमृत्युजराकुले ॥ २६. वे व्याधि, मृत्यु और जरा से आकुल इस संसार चक्रवाल में नाना प्रकार के दुःखों का बार-बार अनुभव करते हैं। २६. णाणाविहाई दुक्खाई अणुहवंति पुणो पुणो। संसारचक्कवालम्मि वाहिमच्चुजराकुले ।२६॥ २७. उच्चावयाणि गच्छंता गन्भमेस्संतणंतसो । णायपुत्ते महावीरे एवमाह जिणोत्तमे।२७। -त्ति बेमि॥ उच्चावचानि गच्छन्तः, गर्भमेष्यन्ति अनन्तशः । ज्ञातपुत्रः महावीरः, एवं आह जिनोत्तमः ।। -इति ब्रवीमि ॥ २७. वे उच्च और निम्न स्थानों में भ्रमण करते हुए अनन्त बार जन्म लेंगे-ऐसा जिनोत्तम ज्ञातपुत्र महावीर ने कहा है। -ऐसा मैं कहता हूं। बीया उद्देसो : दूसरा उद्देशक २८. कुछ दार्शनिक (नियतिवादी) यह निरूपित करते हैं—जीव पृथक्-पृथक् उत्पन्न होते हैं, पृथक्-पृथक् सुख-दुःख का वेदन करते हैं और पृथक्-पृथक् ही अपने स्थान से च्युत होते हैं-मरते हैं। २६. वह दुःख स्वयंकृत नहीं होता, अन्यकृत भी नहीं होता। सैद्धिक-निर्वाण का सुख हो अथवा असैद्धिक-सांसारिक सुख-दुःख हो (वह सब नियतिकृत होता है।) २८. आघायं पुण एगेसि उववण्णा पुढो जिया। वेदयंति सुहं दुक्खं अदुवा लुप्पंति ठाणओ ।। २६. ण तं सयं कडं दुक्खं ण य अण्णकडं च णं । सुहं वा जइ वा दुक्खं सेहियं वा असेहियं ।२। ३०.ण सयं कडं ण अण्णेहि वेदयंति पुढो जिया । संगइयं तं तहा तेसि इहमेगेसिमाहियं ।। ३१. एवमेयाणि जंपंता बाला पंडियमाणिणो। णिययाणिययं संतं अयाणंता अबुद्धिया।४। आख्यातं पुनरेकेषां, उपपन्नाः पृथग् जीवाः । वेदयन्ति सुखं दुःखं, अथवा लुप्यन्ते स्थानतः ।। न तद् स्वयं कृतं दुःखं, न च अन्यकृतं च । सुखं वा यदि वा दुःखं, सैद्धिकं वा असैद्धिकम् ।। न स्वयं कृतं न अन्यैः, वेदयन्ति पृथग् जीवाः । सांगतिकं तत् तथा तेषां, इह एकेषामाहृतम् ।। एवमेतानि जल्पन्तो, बालाः पंडितमानिनः । नियताऽनियतं सत्, अजानन्तः अबुद्धिकाः ।। ३०. सभी जीव न स्वकृत सुख-दुःख का वेदन करते हैं और न अन्य कृत सुख-दुःख का वेदन करते हैं । वह . सुख-दुःख उनके सांगतिक-नियति जनित" होता है, ऐसा कुछ (नियतिवादी) मानते हैं । ३१. इस प्रकार नियतिवाद का प्रतिपादन करने वाले अज्ञानी होते हुए भी अपने आपको पंडित मानते हैं। कुछ सुख-दुःख नियत होता है और कुछ अनियत-" इस सत्य को वे अल्पबुद्धि वाले मनुष्य नहीं जानते। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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