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सूयगडो १
अध्ययन ३: टिप्पण ८३-८४
श्लोक ५७: ८३. गाली गलौज की (अक्कोसे)
इसका अर्थ है-गाली-गलौज, असभ्य वचन, दंड-पुष्टि आदि से मारना-पीटना ।'
दुर्बल व्यक्ति हर बात का उत्तर क्रोध या गाली-गलौज में ही देते हैं। स्त्री और बालक जहां पराजय का अनुभव करते हैं, वहां रोना ही उनका उत्तर है। साधु प्रत्येक बात का उत्तर क्षमा से देते हैं।' ८४. तंगण (तंगण) - इसका अर्थ है-टंकण देश में रहने वाले म्लेच्छ जाति के लोक । ये लोग पर्वतों पर रहते थे और बहुत शक्तिशाली होते थे। जब शत्रु इन पर आक्रमण करता तब ये उसकी बड़ी से बड़ी हाथी-सेना और अश्व-सेना को पराजित कर देते थे। ये पराजित होने लगते तब आयुधों से लड़ने में असमर्थ होकर शीघ्र ही पर्वतों में जा छिपते थे ।'
उत्तरापथ के म्लेच्छ देशों में यत्र-तत्र टंकण नाम के म्लेच्छ लोग निवास करते थे। दक्षिणापथ के ब्यापारी वहां कुछ वस्तुएं बेचने को आते थे। उस समय सारा लेनदेन वस्तु-विनिमय से ही होता था। उत्तरापथ में स्वर्ण और हाथीदांत की बहुलता थी। वहां के लोग इनके बदले में और-और वस्तुएं प्राप्त करते थे। दोनों देशों के लोग एक-दूसरे की भाषा से अनभिज्ञ थे। इस अनभिज्ञता के कारण परसर वस्तु-विनिमय कुछ कठिन होता था। वे लोग संकेतों से काम लेते थे। दक्षिणापथ के लोग अपनी वस्तुओं का एक स्थान पर ढेर कर देते और उत्तरापथ के टंकण लोग अपनी वस्तुओं (सोना, हाथीदांत आदि) का ढेर कर देते। वे दोनों पक्ष अपनी-अपनी वस्तुओं के ढेर पर हाथ रख खड़े हो जाते। जब दोनों की इच्छापूर्ति हो जाती, तब वे अपने हाथ उन वस्तुओं के ढेर से खींच लेते। जब एक पक्ष भी उस विनिमय से संतुष्ट नहीं होता तब तक वह अपना हाथ नहीं खींचता। इसका यह अर्थ समझा जाता कि अभी वह पक्ष वस्तु-विनिमय से संतुष्ट नहीं है। व्यापार तभी संपन्न होता जब दोनों पक्ष संतुष्ट होते। उनके व्यवसाय का यह प्रकार परस्पर वस्तु-विनिमय की विधि पर अवलंबित था।
प्राकृत प्रोपर नेम्स के अनुसार टंकण लोग गंगा के पूर्वी किनारे पर बसे हुए थे। उनका प्रदेश रामगंगा नदी से सरयू तक फैला हुआ था । मध्य एशिया में वे कशगर में भी व्याप्त थे ।
विशेषावश्यक भाष्य में टंकणविणक की उपमा प्राप्त है-० टंकण वणिओवमा समए । ० टंकण वणिओवमा जोग्गा ॥ १. (क) वृत्ति, पत्र ६४ : आक्रोशान् असभ्यवचनरूपांस्तथा दण्डमुष्ट्यादिभिश्च ।
(क) चूणि, पृ० ६३ : आक्रोशयन्ति यष्टि-मुष्टि भिश्चोत्तिष्ठन्ति ।। २.णि, पृ०६३ :प्रायेण दुर्बलस्य रोषो उत्तरं भवति आक्रोशश्च, रुदितोत्तरा हि स्त्रिय: बालकाश्च, क्षान्त्युत्तराः साधवः । ३. (क) चूणि पृ०६३ : टंकणा णाम म्लेच्छ जातयः पार्वतेयाः, ते हि पर्वतमाश्रित्य सुमहन्तमवि अस्सबलं वा हत्यिबलं वा प्रारभन्ते
आगलिन्ति, पराजिता: सुशीघ्र पर्वतमाश्रयन्ति । (ख) वृत्ति पत्र १४ : 'टङ्कणा' म्लेच्छविशेषा दुर्जया यदा परेण बलिना स्वानीकादिनाऽभियन्ते तदा ते नानाविधैरप्यायुधेर्योद्धम
समर्थाः सन्तः पर्वतं शरणमाश्रयन्ति । ४. (क) आवश्यक चूणि, प्रथम भाग, पृ० १२० : उत्तरावहे टंकणा णाम मेच्छा, ते सुवन्नदंतमादीहि दक्षिणावहगाई भंडाई गेहंति,
ते य अवरोप्परं भासं न जाणंति, पच्छा पुंजे करेंति, हत्थेणं उच्छादेंति, जाव इच्छा
ण पूरेति ताव ण अवणेति । पुन्ने अवणेति, एवं तेसि इच्छियपडिच्छितो ववहारो। (ख) विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १४४४, १४४५, वृत्ति : इहोत्तरापथे म्लेच्छदेशे क्वचिद् टङ्कमाभिधाना म्लेच्छाः । ते च
सुवर्णसट्टन (प्र... मट्टेन) दक्षिणापथायातानि गृह्णन्ति, परं वाणिज्यकारकास्तदभाषां न जानन्ति, तेऽपीतरभाषां नावगच्छन्ति । ततश्च कनकस्य ऋयाणकानां च तावत् पुञ्जः क्रियते, यावदुभयपक्षस्यापीच्चापरिपूर्तिः यावच्चेकस्यापि पक्षस्येच्छा न पूर्यते, तावत् कनकपुञ्जात् क्रयाणकपुञ्जाच्च हस्तं नापसारयन्ति, इच्छापरिपूतौ तु तमपसारयन्ति । एवं तेषां
परस्परमीप्सितप्रतीप्सितो व्यवहारः । ५. प्राकृत प्रोपर नेम्स, पृष्ठ २६४ । ६. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १४४४, १४४५ ।
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