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सूगडो १
८५. आत्म-समाहित मुनि ( अत्तसमाहिए )
भूमिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं'
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श्लोक ५८ :
१. अपने आपको द्रव्य, क्षेत्र और काल के अनुरूप समर्थ जानकर बाद में उतरने वाला मुनि ।
२. परिषद् में प्रवचन करते समय प्रवचन सुनने वाले कौन हैं ? वे किस मत को मानने वाले हैं ? इस प्रकार का विवेक
कर आत्म-समाधि का अनुभव हो ऐसा प्रवचन करने वाला मुनि ।
३. ऐसा वर्णन करने वाला मुनि जिससे
दूसरे के लिए कोई घात या बाधा उपस्थित न हो ।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ - चित्त की स्वस्थता किया है। इसका आशय स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं-वादकाल में हेतु, दृष्टान्त आदि के द्वारा स्वपक्ष की सिद्धि तथा माध्यस्थ्ययुक्त वचन आदि के द्वारा पर-पक्ष का उपघात न होना आत्म-समाधि है । ऐसे प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त का प्रयोग करना चाहिए जिससे दूसरे विरोधी न बने, किन्तु उनमें समन्वय का भाव जागे ।
श्लोक ५६ :
अध्ययन ३ टिप्पण ८५-८७
८६. शान्तचित भिक्षु अग्लानभाव से ( अनिलाए समाहिए )
गिला का अर्थ है - ग्लानि । जो ग्लानि से रहित है, वह अगिला होता है । अगिलाए का अर्थ है - अग्लानभाव से । ' हमने समाहिए को भिक्षु का विशेषण मानकर उसका अर्थ शान्तचित्त किया है । चूर्णिकार ने 'अगिलाण' पाठ मानकर उसका अर्थ अपीड़ित, अव्यथित' किया है और 'समाहिए' का अर्थ समाधि के लिए किया है।
८७. पवित्र (पेसलं )
वृत्तिकार ने 'अगिलाए' का अर्थ अग्लानतया (यथाशक्ति) और समाहिए का अर्थ समाधि प्राप्त किया है । यह भिक्षु का विशेषण है ।
श्लोक ६० :
पेशल दो प्रकार का होता है
१. द्रव्य पेशल - प्रीति उत्पन्न करने वाले आहार आदि पदार्थ ।
२. भाव पेशल - समस्त दोषों से रहित वस्तु । भव्य पुरुषों के लिए वह धर्म ही है । "
१. चूर्णि, पृ० ६४ : आत्मसमाधिर्नाम दव्वं खेत्तं कालं सामत्थं चडप्पणो वियाणित्ता । इति, अधवा के अयं पुरिसे ? कं च णते ? त्ति, एवं तथा तथा यथात्मनो समाधिर्भवति । उक्तं हि पडिपक्खो णायव्वो । अधवा आत्मसमाधिर्नाम यथा परवो न घातो भवति बाधा वा ।
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२. (क) वत्ति, पत्र १४, १५ : आत्मनः समाधिः चित्तस्वास्थ्यं यस्य स भवत्यात्मसमाधिकः एतदुक्तं भवति येन येनोपन्यस्तेन हेतुदृष्टान्तादिना आत्मसमाधिः -- स्वपक्षसिद्धिलक्षणो माध्यस्थ्यवचनदिना वा परानुपघातलक्षणः समुत्पद्यते तत् तत्कुर्यादिति ।
(ख) चूर्ण, पृ० १४ : लौकिक-परीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः हेतु प्रतिज्ञादयः ।
३. व्यवहार, विभाग ४, वृत्ति पत्र २२ : गिला-ग्लानिः गिलायाः प्रतिषेधोऽगिला ।
४. चूणि, पृ० ९४ : अगिलाणे अनादितेन अव्यथितेन ।
५. चूर्ण, पृ० १४ : समाधिए त्ति आत्मनः समाधिहेतोः कर्त्तव्यम् ।
६. वृत्ति, पत्र ६५ : अग्लानतया यथाशक्ति ।
७. वृत्ति, पत्र ६५ : समाहितः समाधि प्राप्त इति ।
८. चूर्ण, पृ० १४ : पेसलं दग्वे भावे य, दव्वे जं दव्वं पीतिमुत्पादेति आहारादि, भावपेसलस्तु सर्ववचनीय दोषापेतो भव्यानां धर्म एव ।
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