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सूयगडो १
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०६ : महावीर स्तुति : श्लोक ६-११
अनुत्तर विद्वान्, अपरिग्रहीप, अभय" और अनायु (जन्म-मरण के चक्रवाल से मुक्त) थे।
६. से भूइपण्णे अणिएयचारी
ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू । अणुत्तरं तवति सूरिए वा वइरोणिदे व तमं पगासे॥
स भूतिप्रज्ञः अनिकेतचारी, ओघंतरो धीरः अनन्तचक्षुः । अनुत्तरं तपति सूर्य इव, वैरोचनेन्द्र इव तमः प्रकाशयति ।।
६. वे सत्यप्रज्ञ", गृह-त्याग कर विचरने वाले", संसार-प्रवाह के पारगामी", धीर और अनन्त चक्षु वाले थे। वे सूर्य की भांति अनुपम प्रभास्वर और प्रदीप्त अग्नि की भांति अंधकार में प्रकाश करने वाले थे।
७. अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं
णेता मुणी कासवे आसुपण्णे। इंदे व देवाण महाणुभावे सहस्सणेता दिवि णं विसिठे।
अनुत्तरं धर्ममिमं जिनानां, नेता मुनिः काश्यपः आशुप्रज्ञः । इन्द्र इव देवानां महानुभावः, सहस्रनेता दिवि विशिष्टः ।।
७. आशुप्रज्ञ" काश्यप मुनि पूर्ववर्ती सभी तीर्थकरों के अनुत्तर धर्म के नेता थे, जैसे स्वर्ग में इन्द्र अधिक प्रभावी और हजारों देवों का नेता" होता है ।
८. से पण्णया अक्खयसागरे वा महोदही वा वि अणंतपारे। अणाइले या अकसाइ मुक्के सक्के व देवाहिवई जुईमं॥
स प्रज्ञया अक्षयः सागर इव, महोदधिः वापि अनन्तपारः । अनाविलश्च अकषायी मुक्तः, शक्र इव देवाधिपतिद्युतिमान् ।।
८. पार रहित स्वयंभूरमण" समुद्र की
भांति उनकी प्रज्ञा अक्षय थी" । वे निर्मल, वीतराग और आवरणमुक्त" तथा देवाधिपति इन्द्र की भांति द्युतिमान् थे।
६.से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए
सुदंसणे वा णगसव्वसेठे। सुरालए वा वि मुदागरे से विरायए णेगगुणोववेए॥
स वीर्येण प्रतिपूर्णवीर्यः, सुदर्शन इव नगसर्वश्रेष्ठः । सुरालयो वापि मुदाकरः स, विराजते नैकगुणोपेतः ॥
६. स्वर्ग की भांति देवताओं को प्रमुदित
करने वाले अनेक गुणों से युक्त सुदर्शन (मेरु) सब पर्वतों में श्रेष्ठ होता है, वैसे ही ज्ञातपुत्र वीर्य से" सर्वश्रेष्ठ वीर्य वाले थे।
१०. सयं सहस्साण उ जोयणाणं
तिकंडगे पंडगवेजयंते । से जोयणे णवणउति सहस्से उद्धस्सिए हेतु सहस्समेगं ॥
शतं सहस्राणां तु योजनानां, त्रिकण्डकः पण्डकवैजयन्तः । स योजनानि नवनवति सहस्राणि, ऊर्ध्वमुच्छितोऽधः सहस्रमेकम् ॥
१०. वह मेरु एक लाख योजन ऊचा, तीन
कांडों (भागों) वाला" तथा पंडकवनरूपी पताका से युक्त है । वह भूमितल से निन्नानवें हजार योजन ऊपर उठा हुआ और एक हजार योजन भूमी के नीचे (गर्भ में) है।
११. पुढे णभे चिट्ठइ भूमिवट्ठिए
जं सूरिया अणुपरिवट्टयंति । से हेमवण्णे बहुणंदणे य जंसी रइं वेययई महिंदा ॥
स्पृष्टो नभस्तिष्ठति भम्यवस्थितः, ११. वह आकाश को छूता हुआ भूमि पर यं सूर्या अनुपरिवर्तयन्ति । स्थित" है । सूर्य उसकी परिक्रमा स हेमवर्णो बहुनन्दनश्च, करते हैं। वह स्वर्ण-वर्ण और बहुतों यस्मिन् रति वेदयन्ति महेन्द्राः ।। को आनन्द देने वाला है। वहां शक
आदि महान् इन्द्र भी आनन्द का अनुभव करते हैं।
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