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________________ सूयगडौ १ १२. से पव्वए सद्दमहप्पगासे विरायती कंचणमढवण्णे । अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे गिरीवरे से जलिए व भोमे ॥ २८३ ०६ : महावीर स्तुति : श्लोक १२-१८ स पर्वतः शब्दमहाप्रकाशः, १२. वह अनेक शब्दों (मंदर, मेरु, सुदर्शन, विराजते काञ्चनमृष्टवर्णः । सुरगिरि) से सब लोगों में प्रसिद्ध है।" अनुत्तरो गिरिषु च पर्वदुर्गः, वह चमकते हुए सोने के वर्ण वाला है। गिरिवरः स ज्वलित इव भौमः ॥ वह गिरिवर सब पर्वतों में श्रेष्ठ, मेखलाओं से दुर्गम और (मणिओं तथा औषधियों से) प्रदीप्त आकाश जैसा लगता है। १३. महीए मज्झम्मि ठिए गिदे पण्णायते सूरियसुद्धलेसे । एवं सिरीए उ स भूरिवण्णे मणोरमे जोयति अच्चिमाली॥ मह्यामध्ये स्थितो नगेन्द्रः, प्रज्ञायते सूर्यशुद्धलेश्यः । एवं श्रिया तु स भूरिवर्णः, मनोरमो द्योतते अचिमाली॥ १३. वह नगेन्द्र भूमी के मध्य में स्थित है और सूर्य के समान तेजस्वी" प्रतीत हो रहा है। अपनी पर्वतश्री से वह नाना वर्णवाला, मनोरम और रश्मिमाला से द्योतित हो रहा है। १४. सुदंसणस्सेस जसो गिरिस्स पवुच्चती महतो पव्वतस्स। एतोवमे समणे णातपुत्ते जाती-जसो-दसण-णाण-सीले ॥ सुदर्शनस्य एतद् यशो गिरेः, प्रोच्यते महतो पर्वतस्य । एतदुपमः श्रमणः ज्ञातपुत्रः, जाति-यशः-दर्शन-ज्ञानशोलः ॥ १४. महान् पर्वत सुदर्शन (मेरु) के यश का यह निरूपण है। ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर जाति, यश दर्शन, ज्ञान और शील से सुदर्शन के समान श्रेष्ठ हैं। १५. गिरीवरे वा णिसढायताणं रुयगे व सेठे वलयायताणं । ततोवमे से जगभूतिपण्णे मुणीण मज्झे तमुदाहु पण्णे ॥ १५. जैसे लंबे पर्वतों में निषध और गोल पर्वतों में रुचक श्रेष्ठ है वैसे ही जगत् में सत्यप्रज्ञ ज्ञातपुत्र प्राज्ञ मुनियों में श्रेष्ठ हैं। गिरिवरो वा निषधः आयतानां, रुचक इव श्रेष्ठः वलयायतानाम् । तदुपमः स जगत्भूतिप्रज्ञः, मुनीनां मध्ये तमुदाहुः प्राज्ञः ॥ अनुत्तरं धर्ममदीर्य, अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति । सुशुक्लशुक्ल अब्गण्डशुक्लं, शंखेन्दुवदेकान्तावदातशुक्लम् ॥ १६. अणुत्तरं धम्ममुदीरइत्ता अणुत्तरं झाणवरं झियाइ। सुसुक्कसुक्कं अपगंडसुक्कं संखेंदुवेगंतवदातसुक्कं ॥ १६. उन्होंने अनुत्तर धर्म का उपदेश दे अनुत्तर ध्यान किया, जो शुक्ल से अधिक शुक्ल, फेन की भांति शुक्ल, शंख और चन्द्रमा की भांति एकांत विशुद्ध शुक्ल है। १७. अणतरग्गं परमं महेसी असेसकम्मंस विसोहइत्ता। सिद्धि गति साइमणंत पत्ते णाणेण सोलेण य दंसणेण ॥ अनत्तराग्रां परमां महर्षिः, अशेषकर्मांशान् विशोध्य । सिद्धि गति सादिमनन्तां प्राप्तः, ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन ।। १७. महर्षि ज्ञातपुत्र ज्ञान, शील"और दर्शन के द्वारा सारे कर्मों का विशोधन (निर्जरण) कर सिद्धिगति को प्राप्त हो गए, जो अनुत्तर, लोक के अग्र-भाग में स्थित," परम तथा सादि-अनन्तर है-जहां मुक्त आत्मा जाती है पर लौट कर नहीं आती। १८. रुक्खेसु णाते जह सामली वा जंसी रति वेययंती सुवण्णा। वणेसु या गंदणमाहु सेनें णाणेण सीलेण य भूतिपण्णे॥ रूक्षेष ज्ञातः यथा शाल्मली वा, यस्मिन् रति वेदयन्ति सुपर्णाः । बनेषु च नन्दनमाहुः श्रेष्ठ, ज्ञानेन शीलेन च भूतिप्रज्ञः ।। १८. वृक्षों में जैसे शाल्मली" प्रसिद्ध है," जहां सुपर्णकुमार देव आनन्द का अनुभव करते हैं तथा वनों में जैसे नन्दन वन श्रेष्ठ है, वैसे ही सत्यप्रज्ञ" ज्ञातपुत्र ज्ञान और शील से श्रेष्ठ हैं Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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