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________________ सूयगडो १ १६. थणितं व सद्दाण अणुत्तरं उ चंदे व ताराण महाणुभावे । गंधेसु वा चंदणमाहु सेठें एवं मुणीणं अपडिण्णमाहु॥ २०. जहा सयंभू उदहीण सेठे णागेसु वा धरणिदमाहु सेठें। खोओदए वा रस-वेजयंते तहोवहाणे मुणि वेजयंते ॥ २१. हत्थीसु एरावणमाहु णाते सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा। पक्खीसु या गरुले वेणुदेवे णिव्वाणवादीणिह णायपुत्ते ॥ २२. जोहेसु णाए जह वीससेणे पुप्फेसु वा जह अरविंदमाह। खत्तीण सेठे जह दंतवक्के इसीण सेठे तह वद्धमाणे॥ २३. दाणाण सेठं अभयप्पयाणं सच्चेसु या अणवज्जं वयंति । तवेसु या उत्तम बंभचेरं लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते॥ २४. ठितीण सेट्टा लवसत्तमा वा सभा सुहम्मा व सभाण सेट्टा। णिव्वाणसेट्ठा जह सव्वधम्मा ण णायपुत्ता परमत्थि णाणी॥ २८४ ० ६ : महावीर स्तुति : श्लोक १९-२६ स्तनितं वा शब्दानामनुत्तरं तु, १६. जैसे शब्दों में मेघ का गर्जन" अनुत्तर, चन्द्रो वा ताराणां महानुभावः । तारागण में चन्द्रमा महाप्रतापी और गन्धेषु वा चन्दनमाहुः श्रेष्ठ, गंधों में चन्दन" श्रेष्ठ है, वैसे ही एवं मुनीनां अप्रतिज्ञमाहुः॥ अनासक्त" मुनियों में ज्ञातपुत्र श्रेष्ठ हैं। यथा स्वयंभूः उदधीनां श्रेष्ठः, २०. जैसे समुद्रों में स्वयंभू", नागकुमार नागेष वा धरणेन्द्रमाहुः श्रेष्ठम् । देवों में धरणेन्द्र और रसों में इक्षुरस क्षोदोदको वा रसवैजयन्तः, श्रेष्ठ होता है, वैसे ही तपस्वी मुनियों तथोपधाने मुनिर्वैजयन्तः ॥ में" ज्ञातपुत्र श्रेष्ठ हैं। हस्तिष्वरावणमाहुतिः , २१. जैसे हाथियों में ऐरावण, पशुओं में सिंहो मगाणां सलिलानां गङ्गा । सिंह, नदियों में गंगा, पक्षियों में पक्षिष च गरुडो वेणुदेवः, वेणुदेव गरुड" प्रधान होता है, वैसे ही निर्वाणवादिनामिह ज्ञातपुत्रः ॥ निर्वाणवादियों में" ज्ञातपुत्र प्रधान हैं । योधेष ज्ञातः यथा विश्वसेनः, २२. जैसे योद्धाओं में वासुदेव कृष्ण, फूलों पुष्पेषु वा यथाऽरविन्दमाहुः । में कमल, क्षत्रियों में दंतवक्त्र" श्रेष्ठ क्षत्रिणां श्रेष्ठो यथा दन्तवक्त्रः, होता है, वैसे ही ऋषियों में ज्ञातपुत्र ऋषीणां श्रेष्ठस्तथा वर्द्धमानः ॥ वर्द्धमान श्रेष्ठ हैं। दानानां श्रेष्ठ अभयप्रदानं, २३. जैसे दानों में अभयदान," सत्य-वचन सत्येष चानवद्यं वदन्ति । में अनवद्य-वचन", तपस्या में ब्रह्मचर्य तपस्सु चोत्तमं ब्रह्मचर्य, प्रधान होता है, वैसे ही श्रमण ज्ञातपुत्र लोकोत्तमः श्रमणो ज्ञातपुत्रः ॥ लोक में प्रधान हैं। स्थितीनां श्रेष्ठाः लवसप्तमा वा, २४. जैसे स्थिति (आयु की काल-मर्यादा) सभा सुधर्मा वा सभानां श्रेष्ठा । में लवसप्तम (अनुत्तर-विमानवासी) निर्वाणश्रेष्ठा यथा सर्वधर्माः, देव, सभाओं में सुधर्मा सभा और न ज्ञातपुत्रात् परमस्ति ज्ञानी॥ सब धर्मों में निर्वाण श्रेष्ठ है, वैसे ही ज्ञानियों में ज्ञातपुत्र श्रेष्ठ हैं-उनसे अधिक कोई ज्ञानी नहीं है। पृथ्व्युपमो धुनाति विगतगृद्धि:, २५. आशुप्रज्ञ ज्ञातपुत्र पृथ्वी के समान न सन्निधिं कुरुते आशुप्रज्ञः । सहिष्णु थे, इसलिए उन्होंने कर्म-शरीर तरीत्वा समुद्रं वा महाभवौघ, को प्रकंपित किया। वे अनासक्त थे, अभयंकरो वीरः अनन्तचक्षुः ॥ इसलिए उन्होंने संग्रह नहीं किया । वे अभयंकर, वीर (पराक्रमी) और अनन्त चक्षु" वाले थे। उन्होंने संसार के महान् समुद्र को तर कर (निर्वाण प्राप्त कर लिया।) क्रोधं च मानं च तथैव मायां, २६. अर्हत् महर्षी ज्ञातपुत्र क्रोध, मान, माया लोभं चतुर्थं अध्यात्मदोषान् । और लोभ-इन चारों अध्यात्म-दोषों एतान् त्यक्त्वा अर्हन महर्षिः, का त्याग कर, स्वयं न पाप करते थे न कुरुते पापं न कारयति ॥ और न दूसरों से करवाते थे। २५. पुढोवमे धुणती विगयगेही ण सणिहिं कुव्वइ आसुपण्णे। तरिउं समुदं व महाभवोघं अभयंकरे वीर अणंतचक्खू ॥ २६. कोहं च माणं च तहेव मायं लोभं चउत्थं अज्झत्तदोसा। एताणि चत्ता अरहा महेसी ण कुम्वई पाव ण कारवेइ ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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