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________________ सूयगगे १ १०३ अध्ययन २ : टिप्पण ३४-३७ प्रवजित दास भी अहंकार न करे कि अब मेरे सर्वोच्च स्वामी मेरी पूजा करेंगे, वंदना करेंगे। लज्जा और अहं का विसर्जन ही मोक्ष का साधक हो सकता है। वासुदेव निदानकृत होते हैं, अतः वे प्रव्रज्या के अधिकारी नहीं होते।' श्लोक २६: ३४. सम संयम स्थान या अधिक संयम स्थान में स्थित (अण्णयरम्मि संजमे) अन्यतर का अर्थ है-विषम या अधिक । सबका संयम समान नहीं होता, परिणामों की निर्मलता भी समान नहीं होती. फिर भी यह संघीय व्यवस्था है कि जो पहले प्रवजित होता है वह पूज्य होता है।' ३५. सम्यक् मन वाला (समणे) 'समण' शब्द का एक निरुक्त है-सम्यक् मनवाला। चूणिकार ने प्रस्तुत 'समण' शब्द का वही निरुक्त किया है।' अनुयोगद्वार सूत्र में भी 'समण' शब्द का यह निरुक्त उपलब्ध है। श्लोक २७: ३६. दीर्घकालीन परम्परा (दूरं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ दीर्घ किया है। वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-मोक्ष और दीर्घ ।' ३७. श्लोक २७ : चूर्णिकार ने अहंकार-मुक्ति के आलम्बन की तीन व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं१. अहंकार करने वाले व्यक्ति का अतीत और भविष्य दुःखपूर्ण होते हैं, इसलिए अहंकार नहीं करना चाहिए। २. यह जीव अतीतकाल में कभी उच्च अवस्था में और कभी हीन अवस्था में रहता आया है। कोई भी जीव एक जैसी अवस्था में नहीं रहता, इसलिए अहंकार नहीं करना चाहिए। ३. अहंकारी मनुष्य से मोक्ष, बोधि और श्रेय दूर रहते हैं, इसलिए उसे अहंकार नहीं करना चाहिए। १. चूणि, पृ०५६। २. (क) चूणि, पृ०६०: अण्णयरे व त्ति विसमे वा छट्ठाणपडितस्स तेसु सम्यक्त्वादपि पूज्यः संयम इति कृत्वा अन्यतरे अधिके वर्तमाना पूज्यः संयतत्वादेव । (ख) वृत्ति, पत्र ६३ । ३. चूणि, पृ०६० : समणे ति सम्यग् मणे समणे वा समणे । ४. अनुयोगद्वार, सूत्र ७०८, श्लोक ६ : तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ पावमणो । सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु ॥ ५. चूणि, पृ० ६० : दूरं नाम दीर्घम् ।। ६. वृत्ति, पत्र ६३ : दूरो-मोक्षस्तमनु-पश्चात् तं दृष्ट्वा यदिवा दूरमिति दीर्घकालम् । ७. चूणि, पृ० ६० : दूरं नाम दीर्घमनुपश्य । तोतं धम्ममणागतं तधा, धर्मः स्वभाव इत्यर्थः वर्तमानो धर्मो हि कालानादित्वाद् दूरः वर्तमान: स तु अविरतत्वान्मानादिमदमत्तस्य दुःखं भूयिष्ठोऽतिक्रान्तः । किञ्च -'इमेण खलु जीवेण अतीतद्धाए उच्च-णीय-पशिमासु गतीसु असति उच्चगोते असति णीयगोते होत्था (भग०१२) तथा च अतीतकाले प्राप्तानि सर्वदुःखान्यनेकशः एवमनागतधर्ममपि । अथवा दूरमणुपस्सिअ त्ति दढं पस्सिय, अथवा मोक्षं दूरं श्रेय पस्सिय दुर्लभबोधितां पस्सिय, जात्यादिमदमत्तस्य च दूरतः श्रेयः एवमणपस्सिय इत्येवमाद्यतीताऽनागतान् धर्मान् अणुपस्सिता। For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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