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सूयगडो १
अध्ययन २ : टिप्पण २९-३३ २६. रज को (रयं)
रज का शाब्दिक अर्थ है-चिपकने वाला द्रव्य ।' ३०. गोत्र और अन्यतर (कुल, बल, रूप, श्रुत आदि) (गोयण्णतरेण)
मद के आठ प्रकार हैं-जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, श्रुतमद, लाभमद और ऐश्वर्यमद।' प्रस्तुत शब्द में 'गोत्र' शब्द के द्वारा जाति और कुल का ग्रहण किया गया है। शेष छह मद 'अन्यतर' शब्द के द्वारा गृहीत
श्लोक २४ : ३१. संसार (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि होन जातियों) में (संसारे)
जन्म के आधार पर जातियां पांच हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इनमें जन्मगत क्षमता की दृष्टि से पंचेन्द्रिय जाति श्रेष्ठ है । गोत्र या जाति का अभिमान कर दूसरों की अवज्ञा करने वाला एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि हीन जातियों में जन्म लेता है। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा-किसी के प्रति घृणा मत करो, किसी को हीन मत समझो। ३२. पाप को उत्पन्न करने वाली या पतन को ओर ले जाने वाली (पाविया)
चूणिकार ने 'पातिका' शब्द की व्याख्या की है। वृत्तिकार ने पापिका और पातिका-दोनों अर्थ किए हैं । अवज्ञा सदोष है, इसलिए वह पापिका है। वह स्व-स्थान से नीचे की ओर ले जाती है, इसलिए वह पातिका है।'
श्लोक २५:
३३. श्लोक २५:
अनायक का अर्थ है-जिसका कोई नायक-नेता न हो, जो सर्वथा स्वतंत्र हो । जो अनायक होता है वह सर्वोच्च अधिपति होता है।
प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि निर्ग्रन्थ परंपरा में व्यक्ति विशेष की पूजा नहीं होती, संयम-पर्याय की पूजा होती है। जो संयम-पर्याय में ज्येष्ठ होता है, वह पश्चात् प्रव्रजित व्यक्तियों द्वारा वन्दनीय होता है। यह वंदना की परंपरा संयम-पर्याय की काल-अवधि के आधार पर निर्धारित है।
मनुष्यों में चक्रवर्ती सर्वोच्च अधिपति होता है। इसी प्रकार बलदेव, वासुदेव तथा महामांडलिक राजा भी अपनी-अपनी स्थिति में सर्वोच्च होते हैं। ऐसी स्थिति भी बनती है कि उनके दास का दास पूर्व प्रवजित हो जाता है और वे पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं । ऐसी स्थिति में वह दास का दास उनके द्वारा वंदनीय होता है, क्योंकि वह संयम-पर्याय में ज्येष्ठ है।
प्रस्तुत श्लोक में यह निर्देश दिया गया है कि चक्रवर्ती आदि उच्च व्यक्ति भी प्रव्रज्या-ज्येष्ठ अपने दासानुदास को वंदना करने में कभी लज्जा का अनुभव न करें। वे ऐसा न सोचें-मुझे अपने दास के दास को वंदना करनी पड़ेगी। साथ ही साथ वह पूर्व १. चूणि, पृ० ५६ : रज्यत इति रजः। २. ठाणं ८।२१ : अट्ठ मयट्ठाणा पण्णत्ता तं जहा--जातिभए, कुलमए, बलमए, रूवमए, तवमए, सुतमए, लाभमए, इस्सरियमए । ३. चूणि, पृ० ५६ : गोत्रं नाम जातिः कुलं च गृह्यते, अन्यतरग्रहणात् क्षत्रियः ब्राह्मण इत्यादि, अथवा अन्यतरग्रहणात् शेषाण्यपि मद
स्थानानि गृहीतानि भवन्ति । ४. चणि, पृ० ५६ : संसारे...... विसेसेण सुकुच्छितासु जातीसु एगेंदिय-बेइंदियादिसु । ५. आयारो, २०४६ :.....'णो होणे, णो अइरित्ते........ ६. चूणि, पृ० ५६ : पातिका ..."प्रागुक्ता पातयति नीचगोत्रादिषु संसारे व त्ति । ७. वृत्ति, पत्र ६२: पापिकव दोषवत्येव अथवा स्वस्थानादधमस्थाने पातिका ।
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