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________________ सूयगडो १ अध्ययन २: टिप्पण २५-२८ श्लोक १८: २५. निमन्त्रित करते हैं (लाविया) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-धन आदि का प्रलोभन देकर अनेक प्रकार से निमंत्रण देना—किया है।' वृत्तिकार से 'लावयन्ति' के दो अर्थ किए हैं—निमंत्रित करना, उपलब्ध करना।' श्लोक २१: २६. लक्ष्य तक ले जाने वाले (णेयाउयं) इसका संस्कृत रूप 'नर्यात्रिक' होता है । इसका अर्थ है-ले जाने वाला। चूणि' और वृत्ति में यही अर्थ सम्मत है। कुछ व्याख्या ग्रन्थों में 'नेयाउयं' का अर्थ न्याययुक्त और उसका संस्कृतरूप 'नयायिक' किया गया है। यह शब्दशास्त्रीय दृष्टि से चिन्तनीय है। नैयायिक शब्द का प्राकृतरूप 'णेयाउय' नहीं बनता। ऋकार को उकार का आदेश होने के कारण 'नर्यात्रिक' का 'णेयाउय' रूप बनता है। विशेष विवरण के लिए देखें उत्तरज्झयणाणि ३।६ का टिप्पण, पृष्ठ २७ । २७. महापथ के प्रति (महाविहि) चूर्णिकार ने महावीथि का अर्थ संबोधि-मार्ग, सिद्धिमार्ग किया है। प्रस्तुत अध्ययन का प्रारंभ संबोधि से ही होता है। इसमें उसके विभिन्न उपायों और विघ्नों का उल्लेख किया है। 'महाविहि' शब्द में 'वि' दीर्घ होना चाहिए किन्तु छन्द की दृष्टि से उसे ह्रस्व किया गया है । श्लोक २३: २८. श्लोक २३ : चैतन्य आत्मा का स्वभाव है। मनुष्य जब चैतन्य के अनुभव में रहता है तब उसके रज का बंध नहीं होता । जब वह कषाय के अनुभव में रहता है तब उसके रज का बंध होता है । कषाय को अवस्था में होने का अर्थ है-चैतन्य के प्रति जागृत न होना । यह रज के बंध का हेतु है । अकषाय की अवस्था में होना चैतन्य के प्रति जागृत होना है। यह रज को क्षीण करने का हेतु है। इस अवस्था में रज या कर्म परमाणु अपने आप क्षीण होते हैं । मद कषाय का एक प्रकार है। इससे अभिभूत व्यक्ति गोत्र आदि के उत्कर्ष का अनुभव करता है। उत्कर्ष के अनुभव का अर्थ है दूसरों की हीनता का अनुभव करना । समता धर्म की आराधना करने वाले के लिए यह सर्वथा अवांछनीय है । चूर्णिकार ने 'माहण' शब्द की व्याख्या में बताया है कि अहिंसक सुन्दर होता है और अन्य व्यक्ति अशोभन होते हैं । इस भावना को भी मद का रूप नहीं देना चाहिए। १. चूणि, पृ० ५७ : लाविय त्ति णिमंतगा । जइ कामेहि धगेण वा बहुप्पगारं उवणिमंतेज्ज । २. वृत्ति, पत्र ६० : लावयन्ति उपनिमन्त्रयेयुरुपलोभयेयुरित्यर्थः । ३. चूणि, पृ०५८ : नयतीति नैयायिकः । ४. वृत्ति, पत्र६१ : नेतारम् । ५. (क) उत्तराध्ययन ३९, चूणि, पृ० ६८, १९२ : नयनशीलो नैयायिकः । (ख) वही, वृत्ति पत्र १८५ : नैयायिक: न्यापोपपन्न इत्यर्थः । ६. चणि, पृ० ५७ : महाविधि....... "जो हेटा संबोहणमग्गो भणितो........."तत्र द्रव्यवीधी नगर-ग्रामादिपथा: भाववीधी तु सिद्धिपन्थाः । ७. वही, पृ० ५६ : अकषायत्वेनेति वाक्पशेषः अषायस्य हि सर्पत्वगिवावहीयते रजः । ८. वही, पृ० ५६ : माहणो साधू अहिंसगो सुन्दरो अण्णे असोमणा । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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