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सूयगडो १
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अध्ययन २: टिप्पण २२-२४
उनमें एक कारण है-रक्त और मांस का उपचय ।' उपचित रक्त और मांस काम-केन्द्र को उत्तेजित करते हैं। मनुष्य का ऊर्जा-केन्द्र (प्राणशक्ति या कुण्डलिनी शक्ति) काम-केन्द्र के पास अवस्थित है । जिनका काम-केन्द्र उत्तेजित रहता है उसकी ऊर्जा का प्रवाह उर्ध्वगामी नहीं होता। वह कर्मशरीर को प्रकंपित नहीं कर सकता और उसे प्रकंपित किए बिना प्रज्ञा, सहज प्रसन्नता आदि विशिष्ट शक्तियों का विकास नहीं हो सकता । इस दृष्टि से अनशन आदि के द्वारा स्थूल शरीर को कृश करना आवश्यक है। वह कश होता है, इसका अर्थ है कि कर्मशरीर भी कृश हो रहा है। कर्मशरीर के कृश होने का अर्थ है-राग-द्वेष और मोह कृश हो रहा है। इनके कृश होने का अर्थ है- ज्ञान और दर्शन की शक्ति का विकास ।
राग, द्वेष और मोह के कृश होने पर मनुष्य में अहिंसा या विराट् प्रेम का स्रोत प्रवाहित हो जाता है। यह महावीर का अनुभव-वचन है। केवल महावीर का ही नहीं, पूर्ववर्ती सभी तीर्थंकरों का यही अनुभव है। राग, द्वेष और मोह का विलय होने पर सभी ने अहिंसा धर्म का उद्घोष किया । आचारांग सूत्र में इस तथ्य को विस्तार से समझाया गया है।' २२. अनुधर्म है (अणुधम्मो)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं
१. ऋषभ आदि तीर्थकरों ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया है उसी का प्रतिपादन महावीर ने किया है।
२. सूक्ष्म धर्म। वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ ये हैं-'
१. मोक्ष के प्रति अनुकूल धर्म, अहिंसा । २. परीषह, उपसर्ग आदि को सहन करने की तितिक्षा ।
श्लोक १५:
२३. श्रमण (माहणे) चणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-श्रमण और ब्राह्मण । वृत्तिकार ने इसका अर्थ अहिंसक किया है।'
श्लोक १७:
२४. पुत्र-प्राप्ति के लिए (पुत्तकारणा)
चूर्णिकार ने पुत्र की वांछा के तीन हेतु माने हैं
१. कुल-परंपरा को चलाने के लिए। २. पितृ-पिंडदान के लिए। ३. संपत्ति की सुरक्षा के लिए।
१. ठाणं ४५८१ : चहि ठाणेहि मेहुणसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा
चित्तमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तबट्ठोवओगेणं । २. आयारो ४११,२ : से बेमि-जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूति-सवे पाणा सम्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परितावेयव्वा,
ण उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहि पवेइए। ३. चूणि, पृ० ५६ : अनुधर्मो अनु पश्चाद्भावे यथाऽन्यस्तीर्थकरैस्तथा वर्द्धमानेनापि मुनिना प्रवेदितम् । अणुधर्मः सूक्ष्मो वा धर्मः । ४. वृत्ति, पत्र ५६ : अनुगतो-मोक्षं प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः असावहिंसालक्षणः परीषहोपसर्गसहनलक्षणश्च धर्मः । ५. चूणि, पृ० ५६ : समणे त्ति वा माहणे त्ति वा । ६. वृत्ति, पत्र ५६ : माहण त्ति वधीरिति प्रवृत्तिर्यस्य स प्राकृतशैल्या माहणेत्युचत इति । ७. चूणि, पृ० ५६ : पुत्रकारणाद् एकमपि तावत् कुलतन्तुवर्द्धनं पितृपिण्डदं धनगोप्तारं च पुत्रं जनयस्व ।
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