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सूयगडो १
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अध्ययन ४ : टिप्पण १०७-१११
श्लोक ४३: १०७. सुपारी (पूयफलं)
इसका सामान्य अर्थ है-सुपारी । चूर्णिकार ने इससे पांच सुगंधित द्रव्यों का ग्रहण किया है । वे पांच द्रव्य हैं१. पान
४. लोंग २. सुपारी
५. कपूर । ३. इलायची १०८. (कोसं च मोयमेहाए)
स्त्री कहती है-रात में मुझे भय लगता है। मैं प्रस्रवण करने के लिए बाहर नहीं जा सकती। इसलिए तुम मुझे प्रस्रवणपात्र ला दो, जिससे कि मुझे बाहर न जाना पड़े।
श्लोक ४४:
१०६. पूजा-पात्र (वंदालगं)
देवताओं की पूजा करने के लिए प्रयुक्त होने वाला ताम्रमय पूजा-पात्र। चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार मथुरा मे इस पूजा-पात्र को 'वंदालक' या 'चंदालक' कहा जाता है।' ११०. लघु पात्र (करकं)
चूर्णिकार ने 'करक' के तीन प्रकार बतलाए हैंशौचकरक। मद्यकरक । चक्करिककरक ।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ पानी या मदिरा रखने का लघुपात्र किया है।" १११. संडास के लिए गढा खोद दे (वच्चघरगं च आउसो ! खणाहि)
इस चरण में 'खणाहि' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह संडास-गृह की विशेष स्थिति की ओर निर्देश करता है। चूणिकार के अनुसार घर के एकान्त में एक कूई या गढ़ा खोदा जाता था और घर के सदस्य वहीं शौच-कार्य करते थे।' यह आज के 'सर्वोदय' संडासों से तुलनीय है।
वृत्तिकार ने 'खणाहि' का अर्थ 'संस्कारित कर' किया है। किन्तु यह प्रस्तुत अर्थ को स्पष्ट नहीं करता। १. चूर्णि, पृ० ११७ : पूयफलग्रहणात् पञ्चसौगन्धिकं गृह्यते । २. वृत्ति, पत्र ११७ : तत्र मोच:-प्रस्रवणं कायिकेत्यर्थः तेन मेहः-सेवनं तवयं भाजनं ढौकय, एतदुक्तं भवति-बहिर्गमनं कर्तुमहम
समर्था रात्रौ भयाद् अतो मम यथा रात्रौ बहिर्गमनं न भवति तथा कुरु । ३. (क) चूर्णि, पृ० ११८ : वंदालको नाम तंबमओ करोडओ येनाऽहं दादि देवतानां अच्चणियं करेहामि, सो मधुराए वंदालओ
वुच्चति। (ख) वृत्ति, पत्र ११७ : वन्दालकम् इति देवतार्चनिकाद्यथं ताम्रमयं भाजनं, एतच्च मथुरायां चन्दालकत्वेन प्रतीतमिति । ४. चूणि, पृ० ११८ : करकः करक एव सोयकरको मद्यकरको वा चक्करिककरको वा। ५. वृत्ति, पत्र ११७ : करको जलाधारो मदिराभाजनं वा। ६. चूणि, पृ० ११८ : वच्चघरगं हाणिमा, तं वच्चधरं पच्छन्नं करेहि कवि चत्य खणाहि । ७. वृत्ति, पत्र ११७ : खन संस्कुर ।
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