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टिप्पण: अध्ययन ७
श्लोक १:
१. तृण, वृक्ष (तण रुक्ख)
ये प्रथमा विभक्ति के बहुवचनान्त पद-तणा रुक्खा' के स्थान पर विभक्तिरहित प्रयोग हैं। २. जरायुज (जराउ)
मूल शब्द है-जराउया। यहां 'या' का लोप हुआ है। ३. संस्वेदज (संसेयया)
संस्वेदज-वाष्प या द्रवता से उत्पन्न होने वाले जीव ।
चूणिकार के अनुसार गाय के गोबर आदि में कृमि, मक्षिका आदि उत्पन्न होते हैं। वे संस्त्रेदज कहलाते हैं । तथा जूं, खटमल, लीख आदि भी संस्वेदज प्राणी हैं।
वृत्तिकार ने जूं, खटमल, कृमि आदि को संस्वेदज माना है।'
बौद्ध साहित्य में संस्वेदज की व्याख्या इस प्रकार है-पृथिवी आदि भूतों की द्रवता से उत्पन्न प्राणी। ४. रसज (रसया)
दही, सौवीरक (कांजी), मद्य आदि में उत्पन्न सूक्ष्म-पक्ष्म वाले जीव रसज कहलाते हैं । ये बहुत सूक्ष्म होते हैं । देखें - दसवेआलियं ४। सूत्र ६ का टिप्पण ।
श्लोक २ : ५. (एताई कायाइं पवेइयाइं)
___ काय शब्द पुल्लिग है किन्तु प्राकृत में लिंग नियन्त्रित नहीं होता, इसलिए ये नपुंसक लिंग में प्रयुक्त हैं। ६. सुख (दुःख) को देख (पडिलेह सायं)
सुख-प्रतिलेखना का अर्थ है--सुख को देखना, उसकी समीक्षा करना-जैसे मुझे सुख प्रिय है वैसे ही सब जीवों को सुख प्रिय है। इस प्रकार सुख की प्रतिलेखना करने वाला किसी प्राणी के सुख में बाधा उत्पन्न नहीं करता।
चूर्णिकार आ अभिप्राय यह है-जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, सुख प्रिय है, वैसे ही सभी जीवों को दुःख अप्रिय है और सुख प्रिय है-ऐसा सोचकर किसी भी प्राणी को दुःख न दे।' १. चणि, पृ० १५२ : संस्वेदजाः गोकरीषादिषु कृमि-मक्षिकादयो जायन्ते जूगा-मंकुण-लिक्खादयो य । २. वृत्ति, पत्र १५४ : संस्वेदाज्जाताः संस्वेदजा यूकामत्कुणकृम्यादयः । ३ अभिधर्मकोश ३/८ : संस्वेद ज-भूतानां पृथिव्यादीनां संस्वेदाद् द्रवत्वलक्षणाज्जाता। ४. (क) चूणि, पृ० १५२ : रसजा दधिसोवीरक-मद्यादिषु।
(ख) बत्ति, पत्र १५४ : ये च रसजाभिधाना दधिसौवीरकादिषु रूतपक्षमसन्निभा इति । ५. चणि, पृ० १५२,१५३ : प्रत्युपेक्ष्य सातं सुखमित्यर्थः। कधं पडिलेहेति ?--जध मम न पियं दुक्खं सुहं चेह्र एवमेषां पडिले हित्ता
दुःखमेषां न कार्य णवएण भेदेण ।
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