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सूपको १
२५. विखम्म दीणे परभीषणम्मि मुहमंगलिओदरियं पगिद्धे । णीवार गिद्धे व महावराहे अदूर एवेडि घातमेव ॥
२६. अण्णस्स पाणसिहलोइयस्स अणुष्पियं भासति सेवमाणे । पासत्ययं चैव कुसील च णिरसारए होइ जहा पुलाए ।
२७. अण्णायपिटेऽहिपासएज्जा णो पूर्ण तसा आवहेन्जा | सद्देहि रुवेहि असजमाणे सव्वेहि कामेहि विणीय गेहि ॥
२८. सवाई गाई अव धीरे सच्चाई दुखाई तितिखमाणे । अखिले अनि अणिएवचारी अभयंकरे भिक्खु अणाविलप्पा.
२६. भारस्स जाता मुणि भुंजएज्जा कंबेज्ज पावस्स विवेग भ दुक्खेण पुट्ठे घुमाइएज्जा संगामसोसे व परं दमेजा ॥
३०. अवि हम्ममाणे फलगावतट्ठी समागमं कखइ अंतगस्स । विजय कम्मं ण पर्वच वेड अक्खक्खए वा सगडं ति बेमि ॥
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- ति बेमि ॥
प्र० ७ कुशीलपरिभाषित श्लोक २५-३०
२५. जो अभिनिष्क्रमण कर गृहस्थ से भोजन पाने के लिए दीन होता है, भोजन में आसक्त होकर दाता की प्रशंसा करता है, वह चारे के लोभी " विशालकाय सूअर की भांति शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है ।
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निष्क्रम्य दीन: परभोजने, मखमांगलिक औदर्य प्रगृद्धः । नौवारya इव महावराहः, अदूरे एव एष्यति घातमेव ॥
अन्नस्य पानस्य इहलौकिकस्य, अनुप्रिय भाषते सेवमानः । पार्श्वस्थतां चैव कुशीलतां च, निःसारको भवति यथा पुलाकः ॥
अशात पिण्डेन अध्यासीत, जो पूजन तपसा आवहेत् । शब्देषु रूपेष असजन्, सर्वेषु कामेषु विनीय गृद्धिम् ॥
सर्वान् संगान् अतीत्य घोरः, सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाणः । अखिल जगृद्धः अनिकेतचारी, अभयंकरो भिक्षु अनाविलात्मा ।
भारस्य यात्रायं मुनिर्भुजीत कांक्षे पापस्य विवेक भिक्षुः । दुःखेन pje: धुतमाददीत, संग्रामशीर्ष इव परं दाम्येत् ॥
अपि हन्यमानः हन्यमानः फलकावतष्टो समागमं कांक्षति अन्तकस्य । निर्धूय कर्म न प्रपञ्चं उपैति अक्षक्षये इव शकटं इति ब्रवीमि ॥
- इति ब्रवीमि ।
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२६. जो इहलौकिक अन्न-पान के लिए प्रिय वचन बोलता है, पार्श्वस्था" और कुलीनता का सेवन करता हैवह पुआल " की भांति निस्सार हो जाता है।
२७. मुनि अज्ञातपिण्ड की एपमा करे।" (आहार न मिलने पर भूख को ) सहन करे ।" तपस्या से पूजा पाने की अभिलाषा न करे । शब्दों और रूपों में आसक्त न हो और सभी कामोंइन्द्रिय-विषयों की लालसा को त्यागे । "
२५. धीर मुनि सभी संतों को छोड़कर सभी दुःखों को सहन करे । वह ( गुणों की उत्पत्ति के लिए) उर्वर, अनासक्त, अनिकेतचारी, अभयंकर और निर्मल चित्त वाला हो ।
२६. मुनि संयमभार को वहन करने के लिए" भोजन करे । पाप का विवेक" ( पृथक्करण) करने की इच्छा करे । दुःख से स्पृष्ट होने पर शांत ... रहे । " संग्राम के अग्रिम पंक्ति के योद्धा की भांति कामनाओं का ०२ दमन करे ।
३०. परीषहों से आहत होने पर दोनों ओर से छीले गए फलक की भांति १०३ (शरीर और कायदोनों को ज करने वाला मुनि काल के आने की आकांक्षा करता है । वह कर्म को क्षीण कर प्रपंच (जन्म-मरण) में नहीं जाता, जैसे
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धुरा के टूट जाने पर
गाड़ी
ऐसा मैं कहता हूं।
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