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________________ सूयगडी १ १६. अपरिच्छ दिदि ण हु एव सिद्धी एहिति ते घातमबुज्झमाणा। भूतेहिं जाण पडिलेह सातं विज्ज गहाय तसथावरेहि ॥ ३२६ ०७ : कुशोलपरिभाषित : श्लोक १६-२४ अपरीक्ष्य दृष्टिं न खलु एव सिद्धिः, १६. दृष्टि की परीक्षा किए बिना मोक्ष एष्यन्ति ते घातमबुध्यमानाः । नहीं होता । बोधि को प्राप्त नहीं होने भूतेष जानीहि प्रतिलिख्य सातं, वाले (मिथ्यादृष्टि) विनाश को प्राप्त विद्यां गृहीत्वा त्रसस्थावरेषु ॥ होंगे। (इसलिए दृष्टि की परीक्षा करने वाला) विद्या को ग्रहण कर त्रस और स्थावर प्राणियों में सुख की अभिन्नाषा होती है, इसे जाने।" स्तनन्ति लप्यन्ति त्रस्यन्ति कर्मिणः, २०. अपने कर्मों से बंधे हुए७२ नाना प्रकार पृथक् जीवाः परिसंख्याय भिक्षः । के त्रस प्राणी (मनुष्य के पैर का स्पर्श तस्माद् विद्वान् विरतः आत्मगुप्तः, होने पर) आवाज करते हैं, भयभीत दृष्ट्वा सांश्च प्रतिसंहरेत् ॥ और त्रस्त हो जाते हैं, सिकुड़ और फैल जाते हैं-यह जानकर विद्वान्, विरत और आत्मगुप्त भिक्षु त्रस जीवों को (सामने आते हुए) देखकर (अपने पैरो का) संयम करे। २०. थणंति लुप्पंति तसंति कम्मी पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू । तम्हा विऊ विरए आयगुत्ते दर्छ तसे य प्पडिसाहरेज्जा॥ २१. जे धम्मलद्धं विणिहाय भुंजे वियडेण साहटु य जे सिणाइ । जे धावती लसयई व वत्थं अहाहु से णागणियस्स दूरे ॥ यो धर्मलब्धं विनिधाय भक्ते, विकटेन संहृत्य च यः स्नाति । यो धावति लशयति वा वस्त्रं, अथाहुः सः नान्यस्य दूरे ।। २१. जो भिक्षा से प्राप्त अन्न का संचय कर भोजन करता है, जो शरीर को संकुचित कर निर्जीव जल से स्नान करता है, जो कपड़ों को धोता है उन्हें फाड़ कर छोटे और सांध कर बड़े करता है वह नाग्न्य (श्रामण्य) से" दूर है, ऐसा कहा है। २२.कम्मं परिणाय दगंसि धीरे वियडेण जीवेज्ज य आदिमोक्खं से बीयकंदाइ अभुंजमाणे विरए सिणाणाइसु इत्थियासु॥ कर्म परिज्ञाय दके धीरः, विकटेन जीवेच्चादिमोक्षम् । स बोजकन्दादोन् अभुजानः, विरतः स्नानादिषु स्त्रीषु ।। २२. 'जल के समारंभ से कर्म-बंध होता है'- ऐसा जानकर धीर मुनि मृत्यु पर्यन्त निर्जीव जल से जीवन बिताए । वह बीज, कंद आदि न खाए, स्नान आदि तथा स्त्रियों से विरत रहे। २३, जे मायरं च पियरं च हिच्चा गारं तहा पुत्तपसुं धणं च । कुलाई जे धावति साउगाई अहाहु से सामणियस्स दूरे॥ यो मातरं च पितरं च हित्वा, अगारं तथा पुत्रपशुं धनं च । कुलानि यो धावति स्वादुकानि, अथाहुः स श्रामण्यस्य दूरे ॥ २३. जो माता, पिता घर, पुत्र, पशु और धन को छोड़कर स्वादु भोजन वाले कुलों की ओर दौड़ता है, वह श्रामण्य से दूर है, ऐसा कहा है। २४. कुलाई जे धावति साउगाई आघाइ धम्म उदराणुगिद्धे । से आरियाणं गुणाणं सतंसे जे लावएज्जा असणस्स हेउं॥ कुलानि यो धावति स्वादुकानि, आख्याति धर्म उदरानुगृद्धः । स आर्याणां गुणानां शतांशे, यः लापयेत् अशनस्य हेतुम् ।। २४. जो स्वादु भोजन वाले कुलों की ओर दोड़ता है, पेट भरने के लिए धर्म का आख्यान करता है और जो भोजन के लिए अपनी प्रशंसा करवाता है, वह आर्य-श्रमणों की गुण-संपदा के सौवें भाग से भी हीन होता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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