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सूयगडो १
अध्ययन ७ : टिप्पण ७-६ ७. हिंसा करता है (आयदंडे)
चूर्णिकार ने आत्मदंड के दो अर्थ किए हैं - १. जीव-निकायों को अपनी आत्मा से दंडित करने वाला। २. जीव-निकायों की हिंसा से अपने आपको दंडित करने वाला।
वृत्तिकार ने जीव-निकायों के समारंभ को आत्मदंड माना है। वैकल्पिक रूप में उन्होंने 'आयतदंड' मानकर इसका अर्थदीर्घ दंड अर्थात् दीर्घकाल तक जीवों को पीड़ित करने वाला, किया है।' ८. विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होता है (विप्परियासुवेति)
यहां दो पद हैं 'विप्परियासं' और 'उवेति' । इन दो पदों में संधि कर अनुस्वार को अलाक्षणिक माना है।
विपर्यास का अर्थ है--जन्म-मरण या संसार ।" जो व्यक्ति जीव-निकायों की हिंसा करता है वह विपर्यास को प्राप्त होता है-जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है।
चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है-वह सुखार्थी प्राणी उन जीव-निकायों की हिंसा करता है और उन्हीं जीव-निकायों में जन्म लेकर उन-उन दुःखों को पाता है, सुख के विपरीत दुःख को प्राप्त होता है। धर्मार्थी होकर हिंसा करने वाला अधर्म को प्राप्त होता है । मोक्षार्थी होकर हिंसा करने वाला संसार को प्राप्त होता है।'
वृत्तिकार ने भी इसी आशय से विपर्यास के तीन अर्थ किए हैं -- १. जन्म-मरण करना। २. व्यत्यय-सुख के लिए क्रिया करना और दुःख पाना । मोक्ष के लिए क्रिया करना और संसार पाना ।
३. संसार। ६. श्लोक १,२:
इन दो श्लोकों में कायों का प्रवेदन किया गया है। 'काय' का अर्थ है उपचय । जीवों के छह काय या निकाय होते हैं । षड़जीवनिकाय जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है। आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है-प्रभो ! आपकी सर्वज्ञता को प्रमाणित करने के लिए केवल षड्जीवनिकाय का सिद्धान्त ही पर्याप्त है। छह जीव कायों का वर्गीकरण कई प्रकार से मिलता है । आचारांग में पृथ्वी पानी, अग्नि, वनस्पति, त्रस और वायु---छह कायों का इस प्रकार वर्गीकरण मिलता है। प्रस्तुत प्रकरण में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, तृणरुक्षबीज और त्रस-यह वर्गीकरण उपलब्ध है । दशवकालिक ८।२ में भी यही वर्गीकरण मिलता है। उसके चौथे अध्ययन में क्रम यही है, किन्तु तृणरुक्षबीज के स्थान पर वनस्पति का प्रयोग मिलता है। १ चणि, पृ०१५३ : एषां कायानां आताओ दंडेत्ति, अथवा स एवाऽऽत्मानं दण्डयति य एषां दंडे णिसिरति स आत्मदण्डः । २. वत्ति, पत्र १५४ : यर्थभिः कार्यः समारभ्यमाणैः पीड़यमानेरात्मा दण्ड्यते, एतत्समारम्भादात्मदंडो भवतीत्यर्थः, अथवैभिरेव कायर्ये
आयतदंडा दीर्घदंडाः, एतदुक्तं भवति–एतान कायान ये दीर्घकालं दण्डयन्ति-पोडयन्तीति । ३. चणि, पत्र १५३ : विपर्यासो नाम जन्म-परणे, संहारो वा विपर्यास भवति । ४. चूणि, पृ० १५३ : अथवा सुखार्थी तानाश्य तानेदानुप्रविश्या तानि तानि दुःखान्यवाप्नुते, सुखविपर्यासभतं दुःखमवाप्नोति ।
विपरीतो भावो विपर्यासः, धर्मार्थो तानारभ्याधर्ममाप्नोति, मोक्षार्थी तानारभमाण: संसारमाप्नोति । ५. वृत्ति, पत्र १५४ : ते एतेष्वेव-पृथिव्यादिकायेषु विविधिम् ---अनेकप्रकारं परि--समन्ताद् आशु-क्षिप्रमुपसामीप्येन यान्ति
व्रजन्ति, तेष्वेव पृथिव्यादिकायेषु विविधभनेकप्रकारं भूयो भूयः समुत्पद्यन्त इत्यर्थः यदि वा--विपर्यासोव्यत्ययः सुखाथिभिः कायसमारम्भः क्रियते तत्समारम्भेण च दुःखमेवावाप्यते न सुखमिति, यदि वा कुतीथिका
मोक्षार्थमेत: कार्ययाँ क्रियां कुर्वन्ति तया संसार एव भवतीति । ६. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका १/१३ : य एव षड्जीवनिकायविस्तरः, परैरनालोढपथस्त्वयोदितः ।
अनेन सर्वज्ञपरोक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ।। ७. आयारो, प्रथम अध्ययन ।
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