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________________ टिप्पण : अध्ययन ५ श्लोक १: १. महर्षि (महेसि) इसके दो संस्कृत रूप बनते हैं-महर्षि और महैषी। इनका अर्थ है-महान् ऋषि और महान् अर्थात् मोक्ष की एषणा करने वाला। चूर्णिकार ने इसका अर्थ तीर्थंकर भी किया है।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-उग्र तपस्वी तथा अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को सहने में सक्षम ।' २. पूछा था (पुच्छिसुहं) एक बार जंबूस्वामी ने सुधर्मा से पूछा-भंते ! नरक कैसे हैं ? किन-किन कर्मों के कारण जीव नरक में जाता है ? नरक की वेदनाओं का स्वरूप क्या है ?' इन प्रश्नों के उत्तर में सुधर्मा ने कहा-जम्बू ! जैसे तुम मुझे ये प्रश्न पूछ रहे हो वैसे ही मैंने भी केवलज्ञानी भगवान महावीर से ये प्रश्न पूछे थे ।' श्लोक २: ३. महानुभाव (महाणुभावे) अनुभाव का अर्थ है-माहात्म्य । वह दो प्रकार का होता है - १. द्रव्य अनुभाव- सूर्य आदि का प्रकाश । चक्षुष्मान् व्यक्ति प्रकाश में सांप, कंटक, अग्निपात आदि से अपना बचाव कर लेता है। २. भाव अनुभाव-केवलज्ञान, श्र तज्ञान आदि । इनसे मनुष्य अकुशल का परिहार करता है और मोक्ष-सुख की प्राप्ति कर लेता है। प्रस्तुत प्रकरण में भगवान् महावीर को 'महानुभाव' कहा है। उनके ज्ञान, दर्शन आदि महान् थे।' वृत्तिकार ने चौतीस अतिशयरूप माहात्म्य को महानुभाव माना है।' ४. आशुप्रज्ञ (आसुपण्णे) प्रस्तुत आगम में सात बार 'आशुप्रज्ञ' का प्रयोग मिलता है। चूणि और वृत्ति में इसके सात अर्थ किए गए हैं१. चूर्णि, पृ० १२६ : महरिसी तित्थगरो। २. वृत्ति. पत्र १२६ : महर्षिम् उग्रतपश्चरणकारिणमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णम् । ३. (क) चूणि, पृ० १२६ : सुधम्मसामी किल जंबु सामिणा गरगे पुच्छितो केरिसा णरगा? केरिसेहिं वा कम्मेहिं गम्मति ? केरिसाओ वा तत्थ वेदणाओ? । ततो भणति---पुच्छिंसु हं पृष्ठवानहं भगवन्तं यथैव भवन्तो मां पृच्छन्ति । (ख) वृत्ति पत्र १२६ : जम्बूस्वामिना सुधर्मस्वामी पृष्टः तद्यथा-भगवन् ! कि भूता नरकाः ? कैर्वा कर्मभिरसुमतां तेषत्पादः? कीदृश्यो दा तत्रत्या वेदना ? इत्येवं पृष्ट: सुधर्मस्वाम्याह-यदेतद्भवताऽहं पृष्टस्तदेतद्......श्रीमन्महा वीरवर्धमानस्वामिनं पुरस्तात् पूर्व पृष्टवानहमस्मि । ४. चूणि, पृ० १२६ : भावानुभागस्तु केवलज्ञानं श्रुतं वा, तदनुभावादेव च साधवोऽकुशलानि परिहरन्ति मोक्षसुखं चानुभवन्ते । ५. चूणि, पृ० १२६ : अनुभवनमनुभावः, महान्ति वा ज्ञानादीनि भजति सेवत इत्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र १२६ : महाश्चतुस्त्रिशदतिशयरूपोऽनुभावो-माहात्म्यं यस्य स तथा । ७. सूयगडो ११५४२, १४६७, १।६।२५ १११४१४, १३१४१२२, २३५१, २।६।१८। Jain Education Intemational dain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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