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सूयगड १
४६. एयाई फासाई फुसंति बालं निरंतरं तत्य चिरद्वियं । ण हम्ममाणस्स उ होइ ताणं एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं |२२|
५१. एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे
५०. जं जारिसं पुण्यमकासि कम्म तमेव तदेव आगच्छइ संपराए । एतदुक्खं भवमज्जिणित्ता वेदेति दुक्खी तमणं तदुक्खं ॥ २३॥
ण हिंसए कंचन सम्बलोए । एतदिट्ठी अपरिग्यहे उ बुझेन्ज लोगस्स वसं ण गच्छे | २४|
५२. एवं तिरिक्खमणुयामसुं चउरंतणं तं तयविवागं । स सव्वमेयं इइ वेयइत्ता कंबेज्ज कालं पुयमायते ॥ २५॥
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-त्ति बेमि ॥
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एते स्पर्शाः स्पृशन्ति बालं, निरंतरं तत्र चिरस्थितिकम् । न हन्यमानस्य तु भवति त्राणं, एक: स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखम् ।।
यत् पारणं पूर्वमकार्षीत् कर्म, आगच्छति सम्पराये । भवमर्जयित्वा एकान्तदुःखं वेदयन्त दुःखिनः तद् अनन्तदुःखम् ।।
श्र० ५ : नरकविभक्ति: श्लोक ४६-५२
४६. ये स्पर्श (दुःख) लंबी स्थिति वाले अज्ञानी नैरयिक को निरंतर पीड़ित करते हैं। मार पड़ने पर उसे कोई त्राण नहीं देता । वह स्वयं अकेला ही दुःख का अनुभव करता है । १२५
एतानि श्रुत्वा नारकाणि धीरः, न हिन्स्यात् कञ्चन सर्वलोके । एकान्तदृष्टि: अपरिग्रहस्तु, बुध्येत लोकस्य वशं न गच्छेत् ॥
एवं
चतुरन्तमनन्तं स सर्वमेतद् कांक्षेत् कालं
तिर्थकमनुजामरे, तदनुविपाकम् । इति विदित्वा, धुतमाचरन् ॥
- इति ब्रवीमि ।।
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५०. जिसने जो जैसा कर्म पहले किया है वैसा ही परलोक में फल पाता है । दुःखी प्राणी एकान्त दुःख वाले भव (नरक) का अर्जन कर अनन्त दुःखों को भोगते हैं ।
५१. धीर मनुष्य इन नारकीय दुःखों को सुनकर संपूर्ण लोकवर्ती किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । लक्ष्य के प्रति निश्चित दृष्टि वाला और अपरिग्रही होकर स्वाध्यायशील रहे । वह कषाय का वशवर्ती न बने । ""
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५२. इस प्रकार तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवताओं (नैरयिकों ) - इन चारों गतियों में कर्म के अनुरूप अनन्त विपाक होता है। वह धीर पुरुष 'यह चतुर्गतिक संसार कर्म का विपाक है' ऐसा जानकर धुत का आचरण करता हुआ कर्मक्षय के काल की " आकांक्षा करे ।
- ऐसा मैं कहता हूं ।
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