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________________ सूयगडो १ २४७ अध्ययन ५ : टिप्पण ५-६ १. प्रश्न करने पर जिसको चिन्तन नहीं करना पड़ता, तत्काल सब कुछ समझ में आ जाता है, ऐसी शीघ्र प्रज्ञा से संपन्न व्यक्ति । २. जो सदा-सर्वत्र उपयोगवान होता है।' ३. केवलज्ञानी । * ४. सर्वज्ञ । ५. तीर्थंकर ।" ६. क्षिप्रज्ञ - प्रतिक्षण जागरूक । ७. पटु । ५. दुःखदायी (दुमट्ठ) 'दुहम' शब्द में मकार अलाक्षणिक है। इसका संस्कृतरूप 'दुःखार्थ' है । 'जिसका अर्थ दुःख होता है, जिसका प्रयोजन दुःख होता है अथवा जो दुःख का निमित्त होता है, वह दुःखायें है। यह इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है । इसका तात्पर्यार्थ है - नरक ।' वृत्तिकार ने निम्नोक्त अर्थ भी किए है- १. अस अनुष्ठान दुःख का हेतु है, इसलिए वह है। २. नरकावास दुःख है । ३. असातावेदनीय कर्म से तीव्र पीड़ा होती है, इसलिए वह दुःख है । ६. विषम ( दुग्गं ) इसका शाब्दिक अर्थ है-दुर्ग । वह विषम होता है, अतः नरक को दुर्ग माना है ।' १. (क) सूयगडो १।५।२ चूर्णि पृ० १२६ : आसुपण्णे त्ति न पुच्छितो चितेति, आशु एव प्रजानीते आशुप्रज्ञः । आमशः आशुरेव प्रजानीते न चितमिवेत्यर्थः । (ख) १२६७ पुर्ण पृ० १४४ (ग) सूथगडो १०६ । २५ वृत्ति, पत्र १५१ २. (क)१।५।२ वृति पत्र १२६ (ख) १।६।२५ वृत्ति पत्र १५१ : आशुप्रज्ञः न छद्मस्थवत् मनसा पर्यालोच्य पदार्थ परिच्छित्ति विधत्ते । आशुः सर्वत्र सदोपयोगात् । शुप्रज्ञः सर्वत्र सोपयोगात् । ३. १६० भूमि पृ० १४४ केवलज्ञानत्वादशुमः । (ख) गडो २०५१ चूर्णि पृ० ४०३: प्रो केवली ४. सूयगडो २।६।१८ वृत्ति, पत्र १४५ : आशुप्रज्ञः सर्वज्ञः । एव । ५. सूयगडो २।५।१ चूर्णि पृ० ४०३ : आसुप्रज्ञः तीर्थंकर एव । ६. (क) गट १०१४१४ ० २२६ आसुत इति प्रियतः सग-लब-मुहूर्त प्रतिमानता । (ख) सूयगडो १।१४१४ वृत्ति पत्र २५० । ७. सूयगडो २०५१ वृत्ति, पत्र ११६ : आशुप्रज्ञः पटुप्रज्ञः । "दुःखस्यार्थं दुखमेवार्थः दुःखप्रयोजनो वा दुःखनिमित्तो वा अर्थ: दुहमठ्ठे । तस्य दुःखस्य कोऽर्थः ? वेदना, शरीरादि सुखार्था हि देवलोकाः, दुःखार्था नरकाः । २. पि१२६ दुखम् इति नरकं दुःखहेतुत्वात् अनुष्ठानं यदि वा नरकवास एवं दुःखयतीति दुःखं अथवा असातावेदनी ८. चूर्ण, पृ० १२६ : दुहमट्ठ योदयात् तीव्रपीडात्मकं दुःखमिति । यदि वा — दुहमट्टदुग्गं ति दुःखमेवार्थो यस्मिन् दुःखनिमित्तो वा दुःखप्रयोजनो वास दुःखार्थी - नरकः । १०. (क) वृषि, पृ० १२६ (ख) वृति पत्र १२६ " Jain Education International दुर्गम् नाम विषयम् । स (नरक) पूर्वी विषम दुतरस्यात् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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