SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ ७. अत्यन्त दीन (आदीणियं ) २४८ जिसमें चारों ओर दीनता ही दीनता हो वैसा स्थान । चूर्णिकार ने 'आदीन' का अर्थ 'पाप' किया है। श्लोक ३ : ८. सघन अंधकारमय ( तिमिसंधारे) ऐसा सघन अंधकार जहां अपनी आंखों से अपना शरीर भी न देखा जा सके। जहां अवधिज्ञानी भी दिन में उलूक पक्षी की भांति केवल थोड़ा ही देख सके, ऐसा सघन अंधकार । श्लोक ४ ९. अपने सुख के लिए (आय) आत्मसुख, अपना सुख । व्यक्ति अपने लिए तथा अपने परिवार आदि के लिए भी हिंसा करता है। दूसरे के लिए की जाने वाली हिंसा भी उसके मन को सुख देती है, अतः वह भी उसका ही सुख है ।" वृत्तिकार ने आत्मा का अर्थ स्व शरीर किया है । " १० क्रूर अध्यवसाय से ( तिब्वं ) तीव्र शब्द का तात्पर्य तीव्र अध्यवसाय-पूर्वक है । जो व्यक्ति प्राणियों की हिंसा कर अनुताप नहीं करता वह तीव्र अध्यवसित माना जाता है ।" (ख) वृत्ति, पत्र अध्ययन ५ टिप्पण ७-११ Jain Education International श्लोक ५ : ११. जो ढीठ मनुष्य (पागम) जो हिंसा करने का इच्छुक है या हिंसा कर डालने पर भी जिसके मन में कोई मृदुता पैदा नहीं होती, वह ढीठ होता है । जैसे- सिंह और कृष्ण सर्प । वृत्तिकार के अनुसार ढीठ वह होता है जो हिंसा करता हुआ भी ढिठाई के कारण उसको अन्यान्य प्रमाणों से सिद्ध करने का प्रयत्न करता है ।" १. वृत्ति १२६ आसमन्तादीनवादी आगि अत्यन्तदीन सरावः । - अत्यन्तदीनसत्त्वाश्रयः २. चूर्ण, पृ० १२६ : आदोनं नाम पापम् । २. (क) गि, पृ० १२७ नाम पोरविविणं पसंति किखि ओहिया पेरवंति तं पिकासनियासरखं पेच्छं पेच्छति तमिरिका वा । १२७ : तमिसंधयारे त्ति बहलतमोऽन्धकारे यत्रात्मापि नोपलभ्यते चक्षुषा केवलमवधिनापि मन्दं मन्दमुलूका इवानि पश्यन्ति । हि परा हिति तत्रापि तेषां मनः सुखमेोत्पद्यते पुत्रदारे मुखिय 1 ४. पू ० १२७ ५. वृत्ति पत्र १२० आप मतस्ते ६. चूणि, पृ० १२७ : तीव्राध्यवसिता जे तस-याबरे पाणे हिंसति न चानुतप्यन्ते । ये तु मन्दाध्यवसायाः तत्र स्थावरान् प्राणान् हिंसंति ते त्रिषु नरकेषूपपद्यन्ते । अथवा तीव्रनिति तीव्राध्यवसायाः तीव्रमिथ्यादर्शन निनश्चा तीव्र मिथ्याध्यवसिताश्च । ७ चूर्ण, पृ० १२७ : न तस्य कर्तुकामस्य कृत्वा या किचन मार्दवमुत्पद्यन्ते यथा सिंहस्य कृष्णसर्पस्य वा । ८. वृत्ति पत्र १२८ : प्रागल्भ्यं धान्यं तद्विद्यते यस्य स प्रागल्मी अतिधाष्ट्र्याद्विदति यथा-वेदाभिहिता हिंसा हिंसेब न भवति, तथा राज्ञामयं धर्मो यदुत आखेटकेन विनोदक्रिया, यदि वा- -न मांसभक्षणे दोषो न मद्य न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला इत्यादि, तदेवं वत् प्रकृत्यैव प्राणातिपातानुष्ठायो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy