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________________ सूयगडो १ २४६ अध्ययन ५: टिप्पण १२-१५ १२. नीचे सिर हो (अहोसिरं) यह एक औपचारिक प्रयोग है । मृत्यु के पश्चात् शिर नहीं होता, फिर भी ऊंचाई से गिरने वाले को 'शिर नीचे लटकाए गिरा' कहा जाता है। वही उपचार यहां किया गया है।' श्लोक ६: १३. श्लोक ६ : तिर्यञ्च और मनुष्य भव में मरकर कुछ प्राणी नरक में उत्पन्न होते हैं । वे एक, दो या तीन समय वाली विग्रहगति से वहां उत्पन्न होते हैं । वहां एक अन्तर्महर्त में, अशुभ कर्मों के उदय से अपने-अपने शरीर का उत्पादन करते हैं। वे शरीर अण्डे से निकले हुए रोम और पंखविहीन पक्षियों के शरीर जैसे होते हैं । तत्पश्चात् पर्याप्तियों को प्राप्त कर वे नरकपालों के शब्दों को सुनते हैं। श्लोक ७: १४. अंगारराशि (इंगालरासि) नरक में बादर अग्नि नहीं होती। वहां के कुछ स्थानों के पुद्गल स्वत: उष्ण होते हैं। वे भट्टी की आग से भी अधिक ताप वाले होते हैं। वे अचित्त अग्निकाय के पुद्गल हैं । हमारी अग्नि से उस अग्नि की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि वहां की अग्नि का ताप महानगरदाह की अग्नि से उत्पन्न ताप से भी बहुत तीव्र होता है। तीसवें तथा अड़तीसवें श्लोक में भी बिना काठ की अग्नि का उल्लेख है। उसकी उत्पत्ति वैक्रिय से होती है। यह अचित्त अग्नि है। __ प्रस्तुत अध्ययन में अनेक स्थानों पर नारकीय अग्नि का उल्लेख हुआ है-देखें श्लोक ११, १२, १३ आदि । १५. चिल्ला-चिल्ला कर (अरहस्सरा) अनुबद्ध स्वर, जोर-जोर से चिल्लाना।' १. चूणि, पृ० १२७, १२८ : अधोशिरा इति, उक्तं हि जयतु वसुमतो नपैः समग्रा, व्यपगतचौरभया वसन्तु देशाः । जगति विधुरवादिनः कृतघ्नाः, नरकमवाशिरसः पतन्तु शाक्याः । दूरात् पतने हि शिरसो गुरुत्वाद् अवाशिरसः पतन्ति, स एवोपचारः इहानुगम्यते, न तेषां तस्यामवस्थायां शिरोविद्यत इति । २. (क) चूणि, पृ० १२८ : एकसमयिक-दुसमयिग-तिसमएण वा विग्गहेण उववज्जंति, अंतोमुहुत्तेण अशुभकर्मोदयात् शरीराण्युत्पा दयन्ति, निनाण्डजसन्निभा निजपर्याप्तिभावमागताश्च शब्दान शृण्वन्ति । (ख) वृत्ति, पत्र १२८ : तिर्यङ्मनुष्यभवात् सत्त्वा नरकेष्त्पन्ना अन्तर्मुहूर्तेन निर्लनाण्डजसन्निभानि शरीराण्युत्पादयन्ति, पर्याप्ति भावमागताश्चातिभयानकान् शब्दान् परमाधामिकजनितान् शृण्वन्ति । ३. (क) चूणि, पृ० १२८ : जधा इंगालरासी जलितो धगधगेति एवं ते नरकाः स्वभावोष्णा एव, ण पुण तत्थ बादरो अग्गी अत्थि, Sण्णस्थ विग्गहगति समावण्णएहि । ते पुण उसिणपरिणता पोग्गला जंतवाडचुल्लीओ वि उसिणतरा । (ख) वृत्ति, पत्र १२६ : तत्र बादराग्नेरभावात्तदुपमा भुमिमित्युक्तम्, एतदपि दिग्दर्शनार्थमुक्तम्, अन्यथा नारकतापस्येहत्याग्निना नोपमा घटते, ते च नारका महानगरदाहाधिकेन तापेन दह्यमाना । ४. (क) चूणि, पृ० १३६ : विधूमो नामाग्निरेव, विधूमग्रहणाद् निरिन्धनोऽग्निः स्वयं प्रज्वलितः सेन्धनस्य ह्यग्नेरवश्यमेव धूमो भवति । (ख) चूर्णि, पृ० १३७ : वैक्रियकालमवा अग्नयः अघट्टिता पातालस्था अप्यनवस्था। ५. चूणि, पृ० १२८ : अरहस्सरा णाम अरहतस्वराः अनुबद्धा सरा इत्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र १२६ : अरहस्वरा प्रकटस्वरा महाशब्दाः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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