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सूयगडो १
अध्ययन १२ : टिप्पण ५८-६० २. लोकवाद -अंगसुत्ताणि भाग १, आयारो ११५। अंगसुत्ताणि, भाग २ भगवई २१४५, १३८-१४०; ७।३; ६।१२२, २३१-२३३; ११।६०-११४; १३१४७-५०, ५५-६०, ८८-६२; १६।११०-११५, २०१०-१३; २५।२१-२३;
३. आगति-अंगसुत्ताणि भाग २, भगवई ११।३०-४०; २१७; २४।२७-३३, ३८, ४०, ४४, ४७, ५०, ५३, ६२, ६४, ६५, ६७, ६६, ७१, ७३, ७५, ७७, ७६, ८१, ८४, ८६, ८८, ६० आदि-आदि ।
४. अनागति (मोक्ष)--भगवई १।२००-२१०; ३।१४६-१४८; ६।३२।
५. शाश्वत-अशाश्वत-अंगसुत्ताणि भाग २, भगवई ६।२३३; ७५८-६०, ६३.६५; १६५; ६।१७६, २३१, २३३; १४१४६,५०।
६ जन्म-मरण-भगवई ६।८७, ८८, १०४; ११६४०, ४२, ५६, १२।१३०-१५३; १६।६५
७. उपपात-च्यवन -- भगवई १।११३, ४४६, ४४७; २।११७, ८।३४१-३४३, ११।२; १२।१५४, १६६-१७७; ठाणं २।२५२।
८. अधोगमन-भगवई ११३८४ । ६. आस्रव-भगवई ११३१२-३१३; २१६४; ३३१३३-१४५ । १०. संवर-भगवई ११४२३; ४२४, ४२६; २६४, २०१११; ५।११५; ७।१५६; ६।१६, २०, ३१; १७।४८ । ११. दुक्ख -भगवई ११४४-४७, ५३, ५६, ५६; ६।१८३-१८५; ७।१६-१६ । १२. निर्जरा-भगवई १८१६६-७१ ।
श्लोक २१ ५८. अधोलोक में (अहो वि)
'अधो' का अर्थ है-'सर्वार्थसिद्ध'-अनुत्तर विमान से लेकर नीचे सातवीं नरक भूमि तक का भाग।' ५९. विवर्तन (जन्म-मरग) को (विउट्टणं)
चूर्णिकार ने 'विकुट्टन' शब्द मानकर इसका अर्थ जन्म, मरण किया है।'
वृत्तिकार ने 'वि' का अर्थ नाना प्रकार की या विकृत रूप वाली और 'कुट्टना' का अर्थ-जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से उत्पन्न शारीरिक पीड़ा किया है। दोनों के अर्थ में भिन्न ता है ।
हमने इसका संस्कृत रूप 'विवर्तन' किया है। विवर्तन का अर्थ जन्म-मरण है। ६०. संवर को (संवर)
आश्रव के निरोध को संवर कहा जाता है। यह आश्रव का प्रतिपक्षी है। संवर का अर्थ है-संयम । समस्त योगों का निरोध चौदहवें गुणस्थान में होता है । यह उत्कृष्ट संवर है ।
यथाप्रकारा यावन्तः संसारावेशहेतवः ।
तावन्तस्तद्विपर्यासानिर्वाणावेशहेतवः ॥ -जिस प्रकार के जितने हेतु संसार-प्राप्ति के कारण हैं, उतने ही उनसे विपरीत हेतु निर्वाण-प्राप्ति के हेतु हैं । १. (क) चूणि, पृ० २१७ : सर्वार्थसिद्धादारभ्य यावदधोसप्तम्याः तावदधो वर्तन्ते ।
(ख) वृत्ति, पत्र २२६ : सर्वार्थसिद्धादारतोऽध:सप्तमी नरकभुवम् । २. चूणि, पृ० २१७ : विविधं कुट्टति विकुटुंति, जातन्ते म्रियन्त इत्यर्थः । ३. वृत्ति, पत्र २२६ : विविषां विरूपां वा कुट्टना-जातिजरामरणरोगशोककृतां शरीरपीडाम् । ४. (क) चूणि, पृ० २१७ ।
(ख) वृत्ति, पत्र २२६ ।
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