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सूयगडो १
अध्ययन १ : टिप्पण २५-२६ स्वयं देते हुए कहते हैं कि सांख्य प्रधान से महान्, महान् से अहंकार और अहंकार से षोडशक आदि तत्त्व मानते हैं। वैशेषिक काल, दिग्, आत्मा आदि तथा अन्य वस्तु-समूह को भी मानते हैं । लोकायतिक पांच भूतों के अतिरिक्त किसी आत्मा आदि तत्त्व का अस्तित्व नहीं मानते । अतः प्रस्तुत श्लोक की व्याख्या उन्हीं के मतानुसार की गई है। २५. पांच महाभूत हैं (पंच महन्भूया)
पांच महाभूत हैं -पृथिवी, अप, तेजस्, वायु और आकाश । ये भूत सर्वलोकव्यापी हैं, अत: इन्हें 'महाभूत' कहा गया है।' शरीर में जो कठोर भाग है वह पृथिवी भूत है। शरीर में जो कुछ रूप या द्रव भाग है वह अप् भूत है। शरीर में जो उष्ण स्वभाव या शरीराग्नि है वह तेजस् भूत है। शरीर में जो चल स्वभाव या उच्छ्वास-निश्वास है वह वायु भूत है। शरीर में जो शुषिर स्थान है वह आकाश भूत है।'
श्लोक: २६. इनके संयोग से (तेब्भो)
यह संस्कृत के 'तेभ्यः' का प्रतिरूपक पद है । इसका अर्थ है-इन पांच महाभूतों के संयोग से । वृत्तिकार ने इसका अर्थकाया के आकार में परिणत इन पांच महाभूतों से -ऐसा किया है ।' चूणिकार ने 'ते भो' ऐसा वैकल्पिक पाठ मानकर 'भो' का अर्थ-'शिष्यामंत्रण' किया है।' २७. एक-आत्मा (एगो)
यहां एक शब्द 'आत्मा' का द्योतक है। एक ऐसा चेतन द्रव्य (आत्मा) जो भूतों से अव्यतिरिक्त है।
भूतवादियों के अनुसार यह समूचा लोक भौतिक है । चेतन और अचेतन सभी द्रव्य भौतिक हैं। २८. विनाश होने पर (विणासे)
वृत्तिकार का मत है कि पांच भूतों का काया के आकार में परिणमन तथा उनमें चैतन्य की अभिव्यक्ति हो जाने पर पांच भूतों में से किसी एक भूत की कमी अर्थात् वायु या तेजस् की कमी या दोनों की कमी हो जाने पर प्राणी मृत घोषित हो जाता है। १. वृत्ति, पत्र १५॥ २. वृत्ति, पत्र १५ : महान्ति च तानि भूतानि च महाभूतानि, सर्वलोकव्यापित्वान्महत्त्वविशेषणम् । ३. चूणि, पृष्ठ २३, २४ : तत्र यो ह्यस्मिन् शरीरके कठिनभावो तं पुढविभूतं, यावत् किञ्चिद् रूपं तं आउभूतं, उसिणस्वभावो ___ कायाग्निश्च तेउभूतं, चलस्वभावं उच्छ्वासनिःश्वासश्च वातभूतं, वदनादिशुषिरस्वभावमाकाशम् । ४. चूणि, पृष्ठ २४ । ५. वृत्ति, पत्र १६ : तेभ्यः कायाकारपरिणतेभ्यः । ६. चूणि, पृष्ठ २४ : अथवा ते भो ! एगो त्ति सिस्सामन्त्रणं । ७. वृत्ति, पत्र १६ : एक कश्चिच्चिद्रूपो भूताव्यतिरिक्त आत्मा भवति । ८. चूणि, पृष्ठ २४ : भौतिकोऽयं लोकः चेतन मचेतनद्रव्यं सर्वं भौतिकम् । ६. वृत्ति, पत्र १६ : अथैषां कायाकारपरिणती चैतन्याभिव्यक्ती सत्यां तदूर्व तेषामन्यतनस्य विनाशे अपगमे वायोस्तेजश्चोभयो .......ततश्च मृत इति व्यपदेशः प्रवर्तते ।
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