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०४: स्त्रीपरिज्ञा : श्लो० २८-३४
सूयगडो १ २८. कुव्वंति पावगं कम्म
वेगेवमाहंसु । णा हं करेमि पावं ति अंकेसाइणी ममेस ति।३।
पृट्टा
कुर्वन्ति पापकं कर्म, पृष्टाः वा एके एवमाहुः । नाहं करोमि पापं इति, अंकेशायिनी ममैषा इति ॥
२८. कुछ भिक्षु पाप-कर्म (अब्रह्मचर्य-सेवन)
करते हैं और पूछने पर कहते हैं -- मैं पाप (अब्रह्मचर्य-सेवन) नहीं करता। यह स्त्री (बचपन से ही) मेरी गोद में सोती रही है।
२६. बालस्स मंदयं बीयं
जं च कडं अवजाणई भुज्जो। दुगुणं करेड़ से पावं पूयणकामो विसण्णेसी।२६।
३०. संलोकणिज्जमणगारं
आयगयं णिमंतणेणाहंसु । वत्थं वा ताइ! पायं वा अण्णं पाणगं पडिग्गाहे ।३०।
बालस्य मान्द्यं द्वितीयं, २६. मूढ की यह दूसरी मंदता है कि वह यच्च कृतं अपजानाति भूयः ।। किए हुए पाप को नकारता है। वह द्विगुणं करोति स पापं, पूजा का इच्छुक' और असंयम का पूजनकामः विषण्णषी॥ आकांक्षी होकर दूना पाप करता है। संलोकनीयं
अनगारं, ३०. (अपनी सुन्दरता के कारण) दर्शनीय आत्मगतं निमन्त्रणेन आहुः । और आत्मस्थ अनगार को वह निमंवस्त्रं वा तायिन् ! पात्रं वा, त्रण की भाषा में कहती है-हे अन्नं पानकं प्रतिगृण्हीयाः ।। तायिन् ! आप वस्त्र, पात्र और अन्न
पान को (मेरे घर से) स्वीकार करें। नीवारमेव
बुध्येत, ३१. भिक्षु इसे नीवार" ही समझे । उनके नो इच्छेत् अगारमागन्तुम् ।। घर जाने की इच्छा न करे। जो बद्धो
विषयपाशः, विषय-पाश से बद्ध हो जाता है वह मोहं आपद्यते पुनर्मन्दः॥ मंद मनुष्य फिर मोह में फंस जाता
३१. णीवारमेवं बुज्झज्जा णो इच्छे अगारमागंतुं।
विसयपासेहि मोह मावज्जइ पुणो मंदे ॥३१॥
बद्ध
-त्ति बेमि॥
-इति ब्रवीमि॥
-ऐसा मैं कहता हूं।
बोओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक
३२. ओए सया ण रज्जेज्जा
भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा। भोगे समणाण सुहा जह भुंजंति भिक्खुणो एगे।।
ओजः सदा न रज्येत, भोगकामी पुनः विरज्येत । भोगान् श्रमणानां शृणुत, यथा भुञ्जते भिक्षवः एके॥
३३. अह तं तु भेयमावण्णं
मुच्छियं भिक्खु काममइवटुं। पलिभिदियाण तो पच्छा
पादुद्ध१ मुद्धि पहणति ।२। ३४. जइ केसियाए मए भिक्ख !
णो विहरे सहणमित्थीए। केसे वि अहं लुचिस्सं णण्णत्थ मए चरेज्जासि ॥३॥
अथ तं तु भेदमापन्नं, मच्छितं भिक्षु काममतिवृत्तम् । परिभिद्य ततः पश्चात्, पादौ उद्धृत्य मूनि प्रहन्ति ।। यदि केशिकया मया भिक्षो!, नो विहरेः सार्धं स्त्रिया । केशानपि अहं लञ्चिष्यामि, नान्यत्र मया चरेः॥
३२. राग-द्वेष से मुक्त" होकर अकेला रहने
वाला भिक्षु कामभोग में कभी आसक्त न बने । भोग की कामना उत्पन्न हो गई हो तो उससे फिर विरक्त हो जाए। कुछ श्रमण-भिक्षु जैसे भोग
भोगते हैं, उनके भोगों को तुम सुनो। ३३. चारित्र से भ्रष्ट," मूछित और कामा
सक्त" भिक्षु को वश में करने के बाद स्त्री उसके सिर पर पैर से प्रहार
करती है। ३४- (भिक्षु को वश में करने के लिए कोई
स्त्री कहती है-) मैं केश रखती हूँ। भिक्षु ! यदि तुम मेरे साथ विहार करना नहीं चाहते तो मैं केशलुंचन करा लूंगी। तुम मुझे छोड़ अन्यत्र मत जाओ।
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