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प्र. ४ : स्त्रीपरिज्ञा : श्लो० २१-२७
सूयगडो १ २१. अवि हत्थपायछेयाए
अदुवा वद्धमंस उक्कते। अवि तेयसाभितावणाई तच्छिय खारसिंचणाइं च ।२१॥
अपि हस्तपादच्छेदाय, अथवा वर्धमांसः उत्कृत्तः । अपि तेजसा अभितापनानि, तष्ट्वा क्षारसेचनानि च ॥
२१. व्यभिचारी मनुष्यों के हाथ-पैर काटे
जाते हैं, चमड़ी छीली जाती है और मांस निकाला जाता है। उन्हें आग में जलाया जाता है। उनके शरीर को काटकर नमक छिड़का जाता है।
२२. अदु कण्णणासियाछज्ज कंठच्छेयणं तितिक्खंती। इति एत्थ पाव-संतत्ता ण य वेंति पुणो ण काहिति ।२२॥
अथ कर्णनासिकाच्छेद्यं, कण्ठच्छेदनं तितिक्षन्ते । इति अत्र पापसंतप्ताः , न च ब्रुवन्ति पुनर्न करिष्यामः ।
२२. अथवा उनके नाक-कान काटे जाते है,
कंठ-छेदन किया जाता है। वे इन सब कष्टों को सहते हैं । इस प्रकार पाप (परदारगमन) से संतप्त होने पर भी वे नहीं कहते-हम फिर ऐसा काम नहीं करेंगे।"
२३. सुयमेयमेवमेगेसि
इत्थीवेदे वि हु सुयखायं । एयं पिता वइत्ताणं अदुवा कम्मुणा अवकरेंति ।२३।
___ इत्यावेदे व
ताणं
श्रुतं एतद् एवं एकेषां, स्त्रीवेदेऽपि खलु स्वाख्यातम् । एतद् अपि तावत् उक्त्वा, अथवा कर्मणा अपकुर्वन्ति ।।
२३. (लोकश्रुति) में सुना गया है और स्त्री
वेद (कामशास्त्र)२ में भी कहा गया है कि स्त्री किसी बात को वाणी से स्वीकार करती है किन्तु कर्म से उसका पालन नहीं करती (यह उसका स्वभाव
२४. अण्णं मणेण चितेंति
अण्णं वायाए कम्मुणा अण्णं । तम्हा ण सद्दहे भिक्खू बहुमायाओ इथिओ णच्चा ।२४। .
अन्यद् मनसा चिन्तयन्ति, अन्यद् वाचा कर्मणा अन्यत् । तस्मात् न श्रद्दधीत भिक्षुः, बहुमायाः स्त्रियः ज्ञात्वा ।।
२४. वह मन से कुछ और ही सोचती है,
वचन से कुछ और ही कहती है तथा कर्म से कुछ और ही करती है। इसलिए भिक्षु स्त्रियों को बहुमायाविनी जान, उन पर विश्वास न करे । ५
२५. जुवती समणं बूया
चित्तवत्थालंकारवि भूसिया । विरया चरिस्सहं रुक्खं धम्माइक्ख णे भयंतारो!।२५॥
युवतिः श्रमणं ब्रूयात्, चित्रवस्त्रालंकार - विभूषिता । विरता चरिष्यामि रूक्ष, धर्म आचश्व नः भदन्त !॥
२५. विचित्र वस्त्र और आभूषण से विभू
ति स्त्री श्रमण से कहती है-भदन्त ! मुझे धर्म का उपदेश दें। मैं विरत है, संयम का पालन करूंगी।
२६. अदु सावियापवाएणं
अहगं साहम्मिणी य तुब्भं ति। जउकुम्भे जहा उवज्जोई संवासे विऊ विसीदेज्जा ।२६।
अथ
श्राविकाप्रवादन, अहकं सार्मिणी च युष्माकं इति । जतुकुम्भो यथा उपज्योतिः, संवासे विद्वान् विषीदेत् ।।
२६. अथवा श्राविका होने के बहाने वह
कहती है-मैं तुम्हारी सार्मिकी (समान-धर्म को मानने वाली) हूं। किन्तु मुनि इन बातों में न फंसे ।) विद्वान् मनुष्य भी आग के पास रखे हुए लाख के घड़े की भांति स्त्री के संवास से विषाद को प्राप्त होता है।
२७. जउकुम्भे
आसुभितत्ते एवित्थियाहि संवासेण
जोइसुवगूढे णासमुवयाइ।
अणगारा णासमुवयंति ।२७।
जतुकुम्भो ज्योतिषोपगूढः, आशु अभितप्तो नाशमपयाति । एवं स्त्रीभिः अनगाराः, संवासेन नाशमुपयन्ति ।।
२७. आग से लिपटा हुआ लाख का घड़ा
शीघ्र ही तप्त होकर नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार अनगार स्त्रियों के संवास से नष्ट हो जाते हैं।
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